________________ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकश स्मक द्वात्रिंशिकामोंमें स्तुत्यका नाम बराबर दिया हुअा है, फिर यही उसमे शून्य रही हो यह कैसे कहा जा सकता है ? नहीं कहा जा सकता। अत: जरूरत इस बातकी है कि द्वात्रिशिका-विषयक प्राचीन प्रतियों की पूरी खोज की जाय / इससे अनुपलब्ध द्वात्रिशिकाएं भी यदि कोई होंगी तो उपलब्ध हो सकेंगी और उपलब्ध द्वात्रिशिकानोंसे वे प्रशुद्धियां भी दूर हो सकेंगी जिनके कारण उनका पठन-पाठन कठिन हो रहा है और जिसकी पं० सुखलालजी प्रादिको भी भारी शिकायत है। दूसरी बात यह कि द्वात्रिमिकामों को स्तुनियां कहा गया है और इनके अवतारका प्रसङ्ग भी स्तुनि-विषयका ही है। क्योंकि श्वेताम्बरीय प्रबन्धोके अनुमार विक्रमादित्य गजाकी पोरमे शिलिगको नमस्कार करनेका अनुरोध होनेपर जब सिद्धमेनाचार्य ने कहा कि यह देवता मेग नमस्कार महन करने में समर्थ नहीं है-मेरा नमस्कार महन करनेवाले दूसरे ही देवता है-तब राजाने कोतुकया. परिणामकी कोई पर्वाह न करने हा नमस्कार के लिये विशेष प्राग्रह किया। इमपर मिद्धमेन गिर्वानगके मामने प्रामन जमाकर बैट गये और उन्होंने अपने इष्टदेव की स्तुति उन्चम्बर प्रादिके माथ प्रारम्भ करदी: जमा कि निम्न वाक्यांम प्रकट है:* "मिद्धगणेगा पारद्धा बनीमियाहि जिणथुई' x x -(गद्यप्रबन्ध-कथावली) 'तम्मागयम्म तेग पारद्धा जिगणधुई मम माहि। बनीमाहि बत्तीमियाहि उद्दाममग ।।-(पराप्रबन्ध म०प्र० पृ० 56) न्यायावतारमूत्रं च श्रीवीरस्तुतिमायथ / द्वात्रिगच्छ लोकमानाच विगदन्या: स्तुनीरपि // 143 / / -प्रभावकग्न ये म-प्रणाममोढारस्ते देवा प्रपरे ननु / कि भावि प्रगम व द्राक् प्राह गजेति कोनुकी // 135 / / देवान्निजप्रणम्यांश्च दर्शय वं वदन्निति / भूपतिर्जल्पितस्तेनोत्पाते दोषो न मे ना / / 136 / /