________________ 662 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश प्राशयके कई प्रतिज्ञावाक्य हो जानेके कारण उसे इस श्लोकका रखना उचित न जंचा हो, वह इसके स्थानपर कोई दूसरा ही, श्लोक रखना चाहता हो और इसीसे उसने 'युग्मम्' तथा चौथे श्लोकके अंक '4' को कायम रक्सा हो, परन्तु बादकी किसी परिस्थितिके फेरमें पड़कर वह उस श्लोकको बना न सका हो / परन्तु कुछ भी हो, ग्रन्थकी इस स्थितिपरसे इतनी सूचना जरूर मिलती है कि यह ग्रंथप्रति स्ययं ग्रन्थकारकी लिखी हुई अथवा लिखाई हुई है / 'अथ सम्यक्त्वप्रकाश लिख्यते' इस वाक्यमें 'सम्यक्त्वप्रकाश' विभक्तिसे शून्य प्रयुक्त हुमा है जो एक मोटी व्याकरण-सम्बन्धी प्रशुद्धि है। कहा जा सकता है कि यह कापी किसी दूसरेने लिखी होगी और वही सम्यक्त्वप्रकाशके पागे विसर्ग( : लगाना भूल गया होगा / परन्तु जब मागे रचनासम्बन्धी अनेक मोटी मोटी अशुद्धियोंको देखा जाता है तब यह कहनेका साहम नहीं होता / उदाहरणके लिये चौथे श्लोकमें प्रयुक्त हुए 'तदहं चात्र लिख्यते' वाक्यको ही लीजिए, जो ग्रंथकारकी अच्छी खासी प्रगताका द्योतक है मोर इस बातको स्पष्ट बतला रहा है कि उसका संस्कृत व्याकरण-सम्बन्धी ज्ञान कितना तुच्छ था। इम वाक्यका अर्थ होता है 'वह (दर्शनलक्षण) में यहा लिखा जाता है' जब कि होना चाहिये था यह कि वह दर्शनलक्षण मेरे द्वारा यहाँ लिखा जाता है' अथवा 'मैं उसे यहाँ लिखना है।' पोर इसलिये यह वाक्यप्रयोग बेहूदा जान पड़ता है / इसमें 'तदहं की जगह 'तन्मया' होना चाहिये था-'अहं' के साथ 'लिख्यते' का प्रयोग नहीं बनता, 'लिस्वामि' का प्रयोग बन सकता है। जान पड़ता है ग्रन्थकार लिख्यते' और 'लिखामि' के भेदको भी ठीक नहीं समझता था। (2) इसी प्रकारकी प्रज्ञता और बेहदगी उसके निम्न प्रस्तावनावाक्यमे भी पाई जाती है, जो 'तत्त्वार्थ-श्रद्धानं सम्यग्दर्शन' मूत्र पर इनोकवानिकके 21 वार्तिकोंको भाष्यसहित उद्धृत करनेके बाद "इति श्लोकवानिके // 3 // " लिखकर अगले कथनकी सूचनारूपसे दिया गया है: * वे प्रतिज्ञा-वाक्य इस प्रकार है-१ सम्यक्त्वलक्षणं वक्ष्ये, 2 सम्यवत्व- . प्रकाशकं ग्रन्थं करोमि, 3 तदहं चात्र लिख्यते /