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________________ ...: स्वामी पात्रकेसरी और विद्यानन्द 663 “अथ अष्टपाहुरमध्ये दर्शनपाहुडे कुन्दकुन्दस्वामिना सम्यक्त्वरूपं प्रतिपादयति // " इसमें तृतीयान्त 'स्वामिना' पदके साथ 'प्रतिपादयति' का प्रयोग नहीं बनता-वह व्याकरणकी दृष्टिमे महा अशुद्ध है---उसका प्रयोग प्रथमान्त 'स्वामी' पदके साथ होना चाहिये था। ___ यहां पर इतना और भी जान लेना चाहिये कि दर्शनपाहडकी पूरी 36 गाथापोंको छाया-सहित उद्धृत करते हुए, 26 वी गाथाके स्थान पर उस की छाया और छायाके स्थान पर गाथा उद्धृत की गई है / और पांचवों गाथाकी खायाके अनन्तर "अस्मिन द्वौ रणं शनं तत्प्राकृते अव्ययं वाक्यानंकारार्थे वर्तते" यह किमी टीकाका अंश भी यों ही उद्धृत कर दिया गया है; जब कि दूसरी गायानों के साथ उनकी टीकाका कोई अंश नहीं है / मोक्ष. पाहुडको चार गाथानोंको छायासहिन उद्धत करनेके बाद "इति मोक्षपाहुडे" लिखकर मोक्षपाहुडके कपनको ममाप्त किया गया है। इसके बाद पन्थकारको फिर कुछ बयान पाया और उमने 'तथा' शब्द लिखकर 6 गाथाएं और भी छायामहित उद्धृत की है और उनके प्रनन्तर 'इति मोक्षपाहुड' यह समाप्तिमूचक वाक्य पुनः दिया है। इसमें ग्रंथकारके उर्धन करने के ढंग मोर उसको असावधानीका कितना ही पता चलता है। (3) अब उत्पन करने में उमकी अमान-सम्बन्धी योग्यता और समझने के भी कुछ नमूने नीजिए : (क) इलोकवातिको द्वितीय मूत्रके प्रथम दो वानिकोंका जो भाष्य दिया है उसका एग्रंश इस प्रकार है "न अनेण्यवाद्धातूनां दशः श्रद्धानार्थत्वगतः / कथमने कम्मिमर्थे संभवत्यपि अशानाथस्यैव गतिरिति चन् ,प्रकरणविशेषात् / मोक्षकारणत्वं हि प्रकृतं तस्यार्थश्रद्धानस्य युज्यते नालोचनादेरातरस्य / " प्रन्पकारने, उक्त वातिकोके भाष्यको उद्धृत करते हुए, इस मंशको निम्न माया प्रायः श्रुतसागरको धापासे मिलती-जुलती है-कही-कहीं साधारणसा कुछ भेद है।
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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