________________ 664 जैनसाहित्य और शतिहासपर विशद प्रकाश प्रकारम उद्धृत किया है, जो पर्वके सम्बन्धादिकी दृष्टिसे बड़ा ही बेडेगा जान पड़ता है "नानेकार्थत्वाद्धातूनां दृशे भद्धानार्थश्रद्धानस्य युस्पञ्चसे नालोचनादेरर्थातरस्य / " हो सकता है कि जिस ग्रन्थप्रतिपरसे उदरण-कार्य किया गया हो उसमें लेखककी प्रसावधानीसे यह अंश इसी प्रशुद्ध रूपमें लिखा हो; परन्तु फिर भी इससे इतना तो स्पष्ट है कि संग्रहकारमें इतनी भी योग्यता नहीं थी कि वह ऐमे वाक्यके अधूरेपन और बेढंगेपनको समझ सके / होती तो वह उक्त वाक्यको इस रूपमें कदापि उद्धृत न करता। (ब) श्रीजिनसेन-प्रणीत प्रादिपुराणका एक श्लोक इस प्रकार है शमादर्शनमोहस्य सम्यक्त्वादानमादितः / / जन्तोरनादिमिथ्यात्वकलंककलिलात्मनः // 117 // इसमें अनादि-मिथ्याष्टिजीवके प्रथम सम्यक्त्वका ग्रहण दर्शनमोहके उपशमसे बतलाया है / 'सम्यक्त्वप्रकाश में, इसश्लोकको प्रादिपुराणके दूसरे श्लोकोंके साथ उद्धृत करते हुए, इसके "शमादर्शनमोहस्य" चरणके स्थानपर 'सम्यकदर्शनमोहस्य' पाठ दिया है, जिससे उक्त श्लोक घेढंगा तथा बे-मानीसा होगया है और इस बातको मूचित करता है कि संग्रहकार उसके इस बेगेपन तथा बे-मानीपनको ठीक समझ नहीं सका है। (ग) ग्रंथमें "इति मोक्षपाहडे // " के बाद “अथ पंचास्तिकायनामग्रंथे कुन्दकुन्दाचार्यः (?) मोक्षमागे-प्रपंचसूचिका चूलिका वर्णिता सा लिख्यते।' इस प्रस्तावना-वाक्य के साथ पंचाम्तिकायकी 16 मायाए सम्कृतखाया तथा टीकासहित उद्धृत की है और उनपर गाया नम्बर 162 से 178 तक डाले है, जब कि वे 180 तक होने चाहिये थे। 171 और 172 नम्बर दोबार गलतीमे पड़ गये है अथवा जिम ग्रंथप्रतिपरमे नकल की गई है उसमें ऐसे ही गलत नम्बर पड़े होंगे और मंग्रहकार ऐमी मोटी गलतीको भी 'नक़लराचे -प्रकल'की लोकोक्तिके अनुसार महमूस नहीं कर सका! प्रस्तु: इन गाथानों मेंसे 168, 166 नम्बरकी दो गाथानोंको छोड़ कर शेष गाथाएं वे ही है जो बम्बई रायचन्द्र जनशास्त्रमालामें दो संस्कृत टीकानों और एक हिन्दी टीकाके