________________ स्वामी पात्रकेसरी और विद्यानन्द साप प्रकाशित 'पचास्तिकाय' में क्रमश: नं. 154 से 170 तक पाई जाती है / 168 और 166 नम्बरवाली गाथाएं वास्तवमें पंचास्तिकायके 'नवपदार्थाधिकार' की गाथाएँ है पोर उसमें नम्बर 106, 107 पर दर्ज है। उन्हें 'मोक्षमार्गप्रपंचसूचिका चुलिका' अधिकारकी बतलाना सरासर गलती है / परन्तु इन ग़लतीयों तथा नासमझियोंको छोड़िये और इन दोनों गाथामोंकी टीकापर ध्यान दीजिये। 166 (107) नम्बरवाली 'सम्मतं सहहण.' गाथा टीकामें तो "सुगम" लिख दिया हे; जब कि अमृतचन्द्राचार्यने उसकी बड़ी अच्छी टीका दे रक्खी है और उसे 'सुगम' पदके योग्य नहीं समझा है / और 168 (106 )नम्बरवाली गापाकी जो टीका दी है वह गाथा-सहित इस प्रकार है सम्मत्तं णाणजुई चारित्तं रागदोसपरिहोणं / मोक्खस्स हवदि मग्गो भव्याणं लद्धबुद्धीद्धणं / / टोका-"पूर्वमुद्दिष्टं तत्स्ववपरप्रत्ययपर्यायाश्रितं भिन्नसाध्यसाधनभावं व्यवहारनयमाश्रित्य प्ररूपितम् / न चैतद्विप्रतिषिद्धं निश्चयव्यवहारयोः साध्यसाधनभावत्वात सुवर्ण-सुवर्णपाषाणवत / अत एवाभयनयायत्ता पारमेश्वरी तीर्थप्रवर्तनेति // " ___ यह टीका उक्त गाथाकी टीका नहीं है और न हो सकती है, इसे गोड़ी भी समझबूझ तथा संस्कृतका जान रखनेवाला व्यक्ति समझ सकता है / तब ये महत्त्वकी असम्बद्ध पंक्तियां यहां कहांसे माई ? इस रहस्यको जानने के लिये पाटक जरूर उत्सुक होंगे प्रत: उसे नीचे प्रकट किया जाता है श्रीप्रमनचन्द्राचार्यने 'चरियं चरदि सगं सं' इस गाथा नं. 156 की टीकाके अनन्तर अगली गाथाकी प्रस्तावनाको स्पष्ट करनेके लिये “यत्त" शब्द से प्रारम्भ करके उक्त टीकांकित सब पंक्तियां दी है, तदनन्तर 'निश्चयमोक्षमागसाधनभावेन पूर्वोरिष्टव्यवहारमोक्षमार्गोऽयम्" इस प्रस्तावनावाक्यके + देखो,बम्बईकी वि० संवत् १९७२की छपी हुई उक्त प्रति. पृष्ठ 168,166 *बम्बईकी पूर्वोल्लखित प्रतिमें प्रथम चरणका रूप "सम्त नगारगजुत्त" दिया है और संस्कृत टीकाएँ भी उसीके अनुरूप पाई जाती है।