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________________ स्वामी पात्रकेसरी और विद्यानन्द अन्धकारकी इस निधी पूजी और उसके उद्घत करनेके ढंग प्रादिको देखनेसे साफ मासूम होता है कि वह एक बहुत थोड़ी सी समझ-बूझका साधारण पारमी पा, संस्कृतादिका उसे यथेष्ट दोष नहीं था और न अन्य-रचनाकी कोई ठीक कसा हो वह जानता था। तब नहीं मालूम किस प्रकारकी वासना अथवा प्रेरखासे प्रेरित होकर वह इस ग्रन्यके लिखने में प्रवृत्त हुमा है !! प्रस्तु; पाठकोंको इस विषयका स्पष्ट अनुभव करानेके लिये ग्रन्थकारकी इस निजी पूजी प्रादिका कुछ दिग्दर्शन कराया जाता है (1) अन्यका मंगलाचरण तथा प्रतिज्ञावाक्योंको लिये हुए प्रारंभिक अंश इस प्रकार है "ॐनमः सिद्धेभ्यः / / अथ सम्यक्त्वप्रकाश लिख्यते / / प्रणम्य परमं देवं परमानंद विधायकं / सम्यक्त्वलक्षणं वक्ष्ये पूर्वाचार्यकृतं शुभम् // 11 // मोक्षमार्गे जिनरुक्त प्रथमं दर्शनं हिनं / तहिना सर्वधर्मेषु चरित निष्फल भवेत् / / 2 / / तस्मादर्शनशुद्धयर्थ लक्ष्यलक्षणसंयुतं / सम्यक्त्वप्रकाशकं ग्रंथं करोमि हितकारकम् // 3 // युग्मम् // तस्वार्थाधिगमे सूत्र पूर्व दर्शनलक्षणं / मोक्षमार्गे समुहिष्ट तदहं चात्र लिख्यते // 4 // " न. 3 के श्लोकको अंक तीनतक काली स्याहीमे काट रक्खा है परन्तु 'पुग्मम्' को नही काटा है ! 'युग्मम्' पदका प्रयोग पहले ही व्यपं-सा पा तीसरे श्लोककं निकल जानेपर वह मोर भी व्यर्थ हो गया है क्योंकि प्रथम दो श्लोकोंके साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं बैठता, वे दोनों अपने अपने विषय में स्वतंत्र है-दोनों मिलकर एक वाक्य नहीं बनाते--इसलिये 'युग्मम्' का यहां न काटा जाना चिन्तनीय है ! हो सकता है प्रकारको किसी तरह पर तीसरा श्लोक मशुद्ध जान पड़ा हो. जो वास्तवमै प्रशुद्ध है भी; क्योंकि उसके तीसरे चरणमें की जगह ए पक्षर है और पांचवां प्रक्षर लघु न होकर गुरु पड़ा है जो बंदकी रष्टिसे ठीक नहीं; और इस लिये उसने इसे निकाल दिया हो पौर 'युग्मम्' पद का निकालना यह भूल गया हो ! यह भी है कि .
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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