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जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश
चेष्टा करना ऐतिहासिक क्षेत्रमें कदम बढ़ानेवालोंके लिये अनुचित है । श्वेताम्बर समाजके भी कितने ही विद्वानोंने ऐतिहासिक दृष्टिसे ही इस प्रश्नपर विचार किया है, जिनमें मुनि कल्याणविजयजीका नाम खास तौरसे उल्लेखनीय है । इन्होंसे 'वीर-निर्वाण-सम्वत् और जैन कालगणना' नामका एक गवेषणात्मक विस्तृत निवन्ध १८५ पृष्ठ का लिखा है, और उसमें कालगणनाकी कितनी ही भूलें प्रकट की गई हैं । यह निबन्ध "नागरी प्रचारिणी पत्रिका' के १०वें तथा ११वें भागमें प्रकाशित हुया है। यदि यह प्रश्न केवल साम्प्रदायिक मान्यताका ही होता तो मुनिजीको इसके लिये इतना अधिक ऊहापोह तथा परिश्रम करनेकी जरूरत न पड़ती । अस्तु ।। ___ मुनि कल्याणविजयजीके उक्त निबन्धसे कोई एक वर्ष पहिले मैने भी इस विषयपर 'भगवान् महावीर और उनका समय' शीर्षक एक निबन्ध लिखा था, जो चैत्र शुक्ल त्रयोदशी संवत् १९८६ को होनेवाले महावीर-जयन्तीके उत्सवपर देहलीमें पढ़ा गया था और बादको प्रयमवर्षके 'अनेकान्त' की प्रथम किरणमें अग्रस्थान पर प्रकाशित किया गया था * । इस निबन्धमें प्रकृत विषयका कितना अधिक ऊहापोहके साथ विचार किया गया है, प्रचलित वीरनिर्वाण-संवत् पर होनेवाली दूसरे विद्वानोंकी आपत्तियोंका कहाँ तक निरमन कर गुत्थियोंको सुलझाया गया है, और साहित्यकी कुछ पुरानी गड़बड़ अर्थ • समझने की गलती अथवा कालगणनाकी कुछ भूलोंको कितना स्पष्ट करके बतलाया गया है, ये सब बातें उन पाठकोंने छिपी नहीं हैं जिन्होंने इस निबन्धको गौरके साथ पढ़ा है । इसी से 'अनेकान्त' में प्रकाशित होते ही अच्छे-अच्छे जैन-अर्जन विद्वानोंने 'ग्रनेकान्त' पर दी जाने वाली अपनी सम्मितियोंमे इस निबन्धका अभिनन्दन किया था और इसे महत्वपूर्ण, खोजपूर्ण, गवेपरणापूर्ण, वित्तापूर्ग, बड़े मार्कका, अत्युत्तम, उपयोगी, आवश्यक और मननीय लेख प्रकट किया था। कितने ही
* सन् १९३४ में यह निबन्ध मंशोधित तथा परिवधित होकर और धवल जयधवलके प्रमाग्गोंकी भी साथमें लेकर अलग पुस्तकाकार रूपमे छप चुका है।
+ये सम्मतियाँ 'अनेकान्तपर लोकमत' शीर्षकके नीचे 'अनेकान्त' के प्रथमवर्षकी किरणोंमें प्रकाशित हुई हैं।