________________ 420 जैनसाहित्य और इतिहासपर-विशद प्रकाश अन्तर्भूत..है-इन्हींकी व्याख्यामें उसे प्रस्तुत किया जा सकता है / चुनाँचे प्रस्तुत ग्रन्थमें भी इन चारोंका अपने कुछ प्रभिन्न संगी-साधियोंके साथ स्वर उधर प्रसृत निर्देश है; अंसा कि ऊपर के संचयून और विवेचनसे स्पष्ट है / . इस प्रकार यह ग्रन्थके सारे शरीरमें व्यास कर्मयोग-रसका निजोड़ हैसत है अथवा सार है, जो अपने कुछ उपयोग-प्रयोगको भी साप लिए तीनों योगोंके इस भारी कथरको लिये हुए प्रस्तुत स्तोत्रपरसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि स्वामी समन्तभद्र कसे मोर कितने उचकोटिके भक्तियोगी, ज्ञानयोगी और कर्मयोगी थे और इसलिये उनके पद-चिहोंपर चलनेके लिये हमागमाचार-विचार किस प्रकारका होना चाहिए मौर केमे हमे उनके पथका पथिक बनना अथवा प्रात्मतिकी साधनाके माथ साथ लोक-हिलको साधनामें तत्पर रहना चाहिये।