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________________ जैन तीर्थंकरोंका शासनभेद . ७१ ___मूलाचारके इस सम्पूर्ण कथनसे यह बात स्पष्टतया विदित होती है कि समस्त जैनतीर्थंकरोंका शासन एक ही प्रकारका नहीं रहा है। बल्कि समयकी आवश्यकतानुसार-लोकस्थितिको देखते हुए-उसमें कुछ परिवतेन ज़रूर होता रहा है । और इसलिये जिन लोगोंका ऐसा खयाल है कि जैनतीर्थकरोंके उपदेशमें परस्पर रंचमात्र भी भेद या परिवर्तन नहीं होताजो वचनवर्गणा एक तीर्थकरके मुंहसे खिरती है वही अँची तुली दूसरे तीर्थंकरके मुहसे निकलती है, उसमें जरा भी फेरफार नहीं होता-वह खयाल निर्मूल जान पड़ता है। शायद ऐसे लोगोंने तीर्थंकरोंकी वाणीको फोनोग्राफके रिकाडोंमें भरे हुए मैटर (मज़मून) के सदृश समझ रक्खा है ! परन्तु वास्तवमें ऐसा नहीं है । ऐसे लोगोंको मूलाचारके उपर्युक्त कथनपर खूब ध्यान देना चाहिये । ___पं० आशाधरजीने भी, अपने 'अनगारधर्मामृत' ग्रन्थ और उसकी स्वोपज्ञ टीकामें, तीर्थकरोंके इस शासनभेदका उल्लेख किया है । जैसा कि आपके निम्नवाक्योंसे प्रकट है: ' प्रादिमान्तिमतीर्थकरावेव व्रतादिभेदेन सामायिकमुपदिशतः स्म नाऽजितादयो द्वाविंशतिरिति सहेतुकं व्याचष्टे दुःशोधमृजुजडैरिति पुरुरिव वीरोऽदिशद्वतादिभिदा । दुष्पालं वक्रजडैरिति साम्यं नापरे सुपटुशिष्याः ॥६-८७॥ टीका-अदिशदुपदिष्टवान् । कोऽसौ ? वीरोऽन्तिमतीर्थकरः । किं तत् ? साम्यं सामायिकास्यं चारित्रम् कया ? व्रतादिभिदा व्रतसमितिगुप्तिभेदेन । कुतो हेतोः ? इति । किमिति ? भवति । किं तत् ? साम्यम् । कीदृशम् ? दुष्पालं पालयतुमशक्यम् । कै: ? वजडैरनार्जवजाड्योपेतः शिष्यर्ममेति । क इव ? पुरुरिव । इव शब्दो यथाऽर्थः । यथा पुरुरादिनाथः साम्यं व्रतादिभिदाऽदिशत् । कुतो हेतो: ? इति । किमिति ? भवति । किं तत् ? साम्यं । कीदृशम् ? दुःशोधं शोधयितुमशक्यम् । कैः ऋजुजडैराजवजाड्योपेतैः शिष्यर्ममेति । तथाऽपरेऽजितादयो द्वाविंशतिस्तीर्थकरा व्रतादिभिदा साम्यं नादिशन् । साम्यमेव व्रतमिति कथयन्ति स्म स्वशिष्याणामग्रे । कीदृशास्ते ? सुपटुशिष्याः यतः ऋजुवकजडत्वाभावात् सुष्ठु पटवो व्युत्पन्नतमाः शिष्या येषां त एवम् ।" x X
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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