SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश या दूसरोंके प्रतीचार लगता है उसी व्रतसम्बन्धी प्रतीचारके विषयमें प्रतिक्रमण किया जाता है । विपरीत इसके, आदि और अन्तके तीर्थंकरों ( ऋषभदेव और महावीर ) के शिष्य ईर्ष्या, गोचरी और स्वप्नादिसे उत्पन्न हुए समस्त प्रतिचारोंका आचरण करो अथवा मत करो उन्हें समस्त प्रतिक्रमरण - दण्डकोंका उच्चारण करना होता है । यादि और अन्तके दोनों तीर्थकरोंके शिष्योंको क्यों समस्त प्रतिक्रमण - दण्डकोंका उच्चारण करना होता है और क्यों मध्यवर्ती तीर्थंकरों के शिष्य वैसा आचरण नहीं करते ? इसके उत्तरमें आचार्य महोदय लिखते हैं:ममिया दिबुद्धी एयग्गमणा अमोह्लक्खा य । तम्हा हु जमाचरंति तं गरहंता विसुज्यंति ॥ १२८ ॥ पुरिम-चरमा दु जम्हा चलचित्ता चेव मोहलक्खा य । तो सव्वपडिक्कम अंधलयघोडयदि तो ॥ १२६ ॥ ७० अर्थात् - मध्यवर्ती तीर्थकरोंके शिष्य विस्मरणशीलतारहित दृढबुद्धि, स्थिरचित्त और मूढतारहित परीक्षापूर्वक कार्य करनेवाले होते हैं । इसलिये प्रकटरूपसे वे जिस दोषका आचरण करते हैं उस दोषके विषयमें ग्रात्मनिन्दा करते हुए शुद्ध हो जाते हैं । पर यदि और अन्तके दोनों तीर्थकरोंके शिष्य चलचित्त, विस्मरण शील और मूढमना होते हैं - शास्त्रका बहुत बार प्रतिपादन करनेपर भी उसे नहीं जान पाते । उन्हें क्रमश: ऋजुजड और वक्रजड समझना चाहिये – इसलिये उनके समस्त प्रतिक्रमणदण्डकोंके उच्चारणका विधान किया गया है और इस विषय में अन् घोड़ेका दृष्टान्त बतलाया गया है। टीकाकारने इस दृष्टान्तका जो स्पष्टीकरण किया है उसका भावार्थ इस प्रकार है 'किसी राजाका घोड़ा अन्धा हो गया । उक्त राजाने वैद्यपुत्रसे घोड़ेके लिये औषधि पूछी। वह वैद्यपुत्र वैद्यक नही जानता था, और वैद्य किसी दूसरे ग्राम गया हुआ था । अतः उस वैद्यपुत्रने घोडेकी प्राँखको प्राराम पहुँचानेवाली समस्त श्रौषधियों का प्रयोग किया और उनसे वह घोड़ा नीरोग हो गया । इसी तरह साधु भी एक प्रतिक्रमणदण्डकमें स्थिरचित्त नहीं होता हो तो दूसरेमें होगा, दूसरेमें नहीं तो तीसरेमें, तीसरेमें नहीं तो चौथेमें होगा. इस प्रकार सर्वप्रतिक्रमण - दण्डकोंका उच्चारण करना न्याय है । इसमें कोई विरोध नहीं है; क्योंकि सब ही प्रतिक्रमरण- दण्डक कर्मके क्षय करनेमें समर्थ हैं ।
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy