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________________ 680 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश न्ति / तद्यथा। घनदन्तगूढदन्तविशिष्टदन्तशुद्धदन्तनामानः / / एकोहकाणामेकोरुकद्वीपः / एवं शेषाणामपि स्वनामभिस्तुल्यनामानो वेदितव्याः / / शिखरिणोऽप्येवमेवेत्येवं पटपञ्चाशदिति // " ___ इस भाप्यमें मनुष्योंके प्रार्य और म्लेच्छ ऐसे दो भेद करके मार्योके क्षेत्रादिको दृष्टिसे छह भेद किए है -प्रर्थात् पंद्रह कर्मभूमियों ( 5 भरत, 5 ऐरावत मोर 5 विदेहक्षेत्रों) मे उत्पन्न होनेवालोंको 'क्षेत्रायं; इक्ष्वाकु, विदेह, हरि, अम्बष्ट. ज्ञात, कुरु, बुनाल, उग्र, भोग, राजन्य इत्यादि वंशवालों को 'जात्यार्य ; कुलकर-चक्रवति-बलदेव-वासुदेवोंको तथा तीसरे पांचवें प्रथवा सातवें कुलकरसे प्रारम्भ कर के कुलकरोंसे उत्पन्न होनेवाले दूसरे भी विशुटान्वय-प्रकृतिवालोंको 'कुलायं'; यजन, याजन, मध्ययन, प्रध्यापन, प्रयोग, कृषि, लिपि, वाणिज्य और योनिपोषणमे माजीविका करनेवालोको 'कर्माय'; अल्पसावद्यकर्म तथा अनिन्दित माजीविका करने वाले बुनकरों. कुम्हारों, नाइयों, दजियो प्रोर देवटों ( artisans = बढई प्रादि दूसरे कारीगरों) को शिल्पकार्य: पौर शिष्ट पुरुपोंकी भाषामोंके नियनवरोका, लोकरून स्पष्ट शब्दोंका नया उक्त क्षेत्रादि पंच प्रकार के मार्योके मध्यवहारका भले प्रकार उच्चारण भाषण करनेवालोंको 'भाषायं' बतलाया है। साथ ही, क्षेत्रायंका कुछ स्पष्टीकरण करते हुए उदाहरणरूपमे यह भी बतलाया है कि भरतक्षेत्रोंके साईपचीस मानें पच्चीस जनपदोंमें और शंप जनपदोमेसे उन जनपदोंमें जहाँ तक चक्रवर्तीकी विजय पहुंचती है, उत्पन्न होनेवालोंको क्षेत्राम' समझता चाहिए / भोर इससे यह कथन ऐरावत तथा विदेहक्षेत्रों के साथ भी लागू होता है-१५ कर्मभूमियोंमें उनका भी प्रहरण है, उनके भी 251, 25 / / प्रायंजनपदों और शेष म्लेच्छक्षेत्रोंके उन जनपदोमें उत्पन्न होनेवालोंको क्षेत्राय' समझना चाहिए, यहाँ तक चक्रवर्तीकी विजय पहचती है। ___ इस तरह मायोका स्वरूप देकर, इससे विपरीत लक्षणवाने सब मनुष्योको 'म्लेच्छ' बतलाया है और उदाहरणमें अन्तरद्वीपज मनुष्योंका कुछ विस्तार. के साथ उल्लेख किया है। इससे स्पष्ट है कि जो लोग उन दूरवर्ती कुखबचं. बुचे प्रदेशोंमें रहते हैं जहाँ चकतर्तीकी विनय नहीं पहुंच पाती अथवा पती
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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