________________ बार्य और म्लेच्छ 681 की सेना विजयके लिए नहीं जाती है तथा जिनमें जात्यार्य, कुलायं, कर्मार्य, शिल्पयंपोर भाषार्यके भी कोई लक्षण नहीं है वे ही सब 'म्लेच्छ' है। ___ भाष्यविनिर्दिष्ट इस लक्षणमे, यद्यपि, प्राजकलकी जानी हुई पथ्वीके सभी मनुष्य क्षेत्रादि किसी-न-किसी दृष्टि से 'माय' ही ठहरते है-गक-यवनादि भी म्लेच्छ नहीं रहते--परन्तु माथ ही भोगभूमिया-हैमवत मादि प्रकर्मभूमिक्षेत्रोंमें उत्पन्न होनेवाले-मनुष्य 'म्लेच्छ' हो जाते है; क्योंकि उनमें उक्त छह प्रकारके पार्योका कोई लक्षण घटित नहीं होता। इसीमे श्वे० विद्वान पं० सुखलालजीने मो. तस्वार्थमूत्रकी अपनी गुजराती टीकामें, म्लेच्छके उक्त लक्षण पर निम्न फुटनोट देते हुए उन्हें 'म्लेच्छ ही लिखा है "प्रा व्याख्या प्रमाणे हैमवत प्रादि त्रीश भोगभूमिप्रोमां अर्थात् प्रकर्म भूमिप्रोमां रहनारा म्लेच्छो ज छ / " परावणा (प्रज्ञापना) आदि श्वेताम्बरीय प्रागम-सिद्धान्त-ग्रन्थोंमें मनुष्यके सम्मृच्छिम और गर्भव्युत्कान्तिक ऐसे दो भेद करके गर्भव्युत्क्रान्तिकके तीन भेद किये हैकमभमक. प्रकमभमक, अन्तरद्वीपज और इस तरह मनुष्योंके मुख्य चार भेद बतलाए हैं। इन चारों भेदोंका समावेश प्राय और म्लेच्छ नामके उक्त दोनों भेदों में होना चाहिये था क्योंकि सब मनुष्यों को इन दो मेदोंमें गंटा गया है। परन्तु उक्त स्वरूपकयनपरमे सम्मूच्छिम मनुष्योंको-जो कि अंगुलके असंख्यातवें भाग अवगाहनाके धारक, प्रमंजी, अपर्याप्तक प्रोर मन्तमुहनको प्रायुवाने होते है-न नो 'पाय' ही कह सकते है पोर न म्लेच्छ ही; क्योंकि क्षेत्रकी दृष्टिसे यदि वे मायं क्षेत्रवति-मनुष्यों के मल-मूत्रादिक प्रशुचित स्थानोमें उत्पन्न होते है तो म्लेच्छ क्षेत्रति-मनुष्योके मल-मूत्रादिकमें भी उत्पन्न होते है और इसी तरह प्रकर्मभमक तण अन्तरद्वीपज मनुष्योंके मल-मूत्रादिकमें भी वे उत्पन्न होते है / - मणुस्सा दुबिहा पणता तं जहा-समुच्छिममरणुस्सा य / ...." गम्भवतियमगुस्सा तिविहा पण्णता, तं जहा-कम्ममूमगा, प्रकम्मभूमगा, अन्तरदीवगा।" -प्रज्ञापना सूत्र 36, जीवाभिगमेऽपि देखो. प्रनापना सत्र नं. 36 का वह अंश जो "गन्भवतियमरगुस्सा य" के बाद से कि संमुश्चिम-मगुस्सा!" से प्रारम्भ होता है।