________________ - -- - - - Hiसमन्तभद्रा स्वयम्भूस्तोत्रमही .. ग्रन्थ संप्रयामदमायः' (14) पदके द्वारा 'याम' शब्दसे उल्लेखित किया है जो स्वायिक 'अण' 'प्रत्यके कारण यमका ही वाचक है और 'प्र' उपसर्गके साथ में रहनेसे महायम ( महावतार्नुष्ठान ) का मूचक हो जाता है / इस यम अंथवा महायमको ग्रन्थमें, 'अधिगन-मुनि-सुव्रत-स्थितिः (111)' पदके द्वारा 'सुव्रत' भी सूचित किया है और वे सुव्रत अहिमादिक महावत ही है, जिन्है कर्मयोगीको भले प्रकार अधिगन और अधिकृत करना होता है। विनयमें अहंकारका त्याग और दूसरा भी कितना ही सदाचार शामिल है। नपमै सांसारिक इच्छापोंके निरोधकी प्रमुखता है और वह बाह्य तथा अभ्यन्तरके भेदसे दो प्रकारका है / बाह्यतप अनशनांदिक-रूप हैं. और वह अन्तरंग तपकी वृद्धि के लिए ही किया जाता है (८३)-वही उसका लक्ष्य और ध्येय है। मात्र शरीर को 'सुखाना, कृश करना अथवा कष्ट पहुँचाना उसका उद्देश्य नहीं है। अन्तरंग लप प्रायश्चित्तादिरूप है। जिसमें ज्ञानाराधन और ध्यानसाधनकी प्रधानता है-प्रायश्चित्तादि प्राय: उन्हीकी वृद्धि और सिद्धिको लक्ष्यमें लेकर किये जाते हैं / ध्यान प्रात, रांद्र, धर्म्य और शुक्लके भेदसे चार प्रकारका होता है, जिनमे पहले दो भेद अप्रशस्त (कलुषित) और दूसरे दो प्रशस्त (सातिशय ) ध्यान कहलाते हैं। दोनों अप्रशस्त ध्यानोंको छोड़कर प्रशस्त ध्यानों में प्रवृत्ति करना ही इस कर्मयोगीके लिये विहित है (83) / यह योगी तप साधनाकी प्रधानताके कारण 'तपस्वी' भी कहलाता है; परन्तु इसका तप दूसरे कुछ तपस्वियोंकी तरह सन्तनिकी, धनसम्पत्तिकी तथा परलोक में इन्द्रासनादि-प्राप्तिकी प्रांशा तृष्णाको लेकर नहीं होता बल्कि उसका शुद्ध लक्ष्य स्वात्मोपलब्धि होता है-वह जन्म-जरा-मरगणरूप संसार-परिम्रमणसे छूटने के लिये ही प्रग्ने मन-वचन और कायकी प्रवृत्तियोंको तपश्चरण-द्वारा स्वाधीन करता है (48) इन्द्रिय-विषय-सौख्यसे पराङ्मुख रहता है (81) और इतनां * अनशनाऽवमोदर्य-व्रतपरिसंख्याम-रसपरित्याग-विविक्तशय्यासन-कायक्लेशा बाह्य तपः / -तस्त्रार्थ सूत्र-१६ :: + प्रायश्चित्त-विनय-यावृत्त्य स्वाध्यायव्युत्सर्ग-ध्यानान्युत्तरम् /