________________ 410 जैनसाहित्य और इतिहासार विशर प्रकाश निस्पृह हो जाता है कि अपने देहमे भी विरत रहता है (७३)-उसे धोना, मांजना, तेल लगाना, कोमल-शय्यापर मुलाना, पौष्टिक मंजन कराना, शृङ्गारित करना और सी-गर्मी प्रादि की परीपहोंसे अनावश्यकरूपमें बचानाजैसे कार्यो में वह कोई रुचि नहीं रखता। उसका शरीर प्राभूषणों, वेपों, प्रायुषों और वस्त्र प्रावरणादिरूप व्यवधानोंसे रहित होता है पोर इन्द्रियों की शान्तताको लिये रहता है (46,120) / ऐसे तपस्वीका एक सुन्दर संक्षिप्तलक्षण अन्थकार-महोदयने अपने दूसरे ग्रन्थ 'समीचीनधर्मशास्त्र' (ग्नकरण्ड) में निम्न प्रकार दिया हैं: विषयाशा-बशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः / ज्ञान-ध्यान-तपो रक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते // 10 // 'जो इन्द्रिय-विषयों की प्राशातकके दशवर्ती नहीं है, पारम्भों से-कृषिवाणिज्यादिरूप सावद्यकर्मोसे-रहित है, बाह्याभ्यन्तर परिग्रहसे मुक्त है और मान-ध्यानकी प्रधानताको लिये हए त स्यामें लीन रहना है वह तपस्वी प्रशमनीय है।' भब रही दयाकी बात, वह तो सारे धर्मानुष्ठानका प्रारण ही है / इमोमे 'मुनी दया-दीधित-धर्मचक्र" वाक के द्वारा योगी माधुके सारे धर्म समूहको क्ष्याकी किरणोंगला बतलाया है (58) मोर मच्चे मुनिको दयामूतिक रूपमे पापोंकी शान्ति करनेवाला (76) पौर अखिल प्राणियों के प्रति अपनी दयाका विस्तार करजेवाय.(८१) लिखा है / उमका प शरीरको रक्त स्थिति के साथ विद्या, दम पोर दयाकी तत्परताको लिए हुए होता है (64) / दया के बिना न दम बनता है, न यम-नियमादिक पोरन रिग्रहका त्याग ही सुघटित होता है। फिर समाधि और उसके द्वारा कर्मबन्धनोको काटने अथवा भस्म करनेकी तो बात हो दूर है। इससे समाधि की सिके लिये जहाँ उभय प्रकारके परिग्रह-त्यागको प्रावश्यक बतलाया है वह भमा-सबीवामी दया-वधूको अपने पाश्रयमें रखनेकी बात भी कही गई। (16) और पहिसा-परमपहाकी सिविनिये जहाँ उस प्रायविधिको अपनाने की बात करते हुए जिसमें अणुमार भीरम्भ न हो, विविध-परिवार वानका विधान किया है वहा उस परिसह-स्या परमवार परमकम्पाभाबसे-असाधारण