________________ भगवती आराधनाकी दूसरी प्राचीन टीका-टिप्पणियाँ 488 इन्हीं श्रीचन्द्रका जान पड़ता है, जिमके गुरुका नाम श्रीनन्दी या और जिन्होंने वि० सं० 1870 में 'पुरागासार' नामका ग्रन्थ भी लिखा है। जयनन्दी नामके यों तो अनेक मुनि हो गये हैं; परन्तु पं० मामाघरजीसे जो पहले हुए हैं ऐसे एक ही जयनन्दी मुनिका पता मुझे अभी तक चला है, जो कि कनडी भाषाके प्रधान कवि मादिपममे भी पहले होगये है क्योंकि प्रादिपम्पने अपने 'पादिपुराण' पोर 'भाग्नच' में, जिमका रचनाकाल शक सं. 863 (वि. म. 668 ) है, उनका स्मरण किया है। बहुत सम्भव है कि ये ही 'जयनन्तो मुनि भगवती प्राराधनाके टिपणकार हो / यदि मा हो तो इनका ममय वि० की 10 वी मनामीके करीबका जान परता है; क्योंकि प्रादिपुराणमें बहनमे प्राचार्यो स्मरणानन्तर इनका जिमप्रकारमे स्मरण किया गया है उमपरमे ये प्रादिपणके प्राय: ममकालीन प्रथदा घोड़े ही पूर्ववर्ती जान पड़ते है। प्रस्तु, विद्वानोको विशेष खोज करके इस विषयमें प्रपना निश्चितमत प्रकट करना चाहिये। जारन है प्राकृतटीका मोर दोनो टिगोंको माम्मभण्डागेकी कालकोटरियोंसे योजकर प्रकागम लाने की / ये मब ग्रन्थ 10 प्राशाधरजीके अस्तित्वकाल १३वी थी शताब्दी में मौजूद थे और इमलिये पगने भण्डारोंकी खोन द्वारा इनका पता लगाया जा सकता है / देखते है.कोन मज्जन इन लुप्तप्राय ग्रन्थोंकी खोजका धंय पोर यश प्राप्त करते है। भर में मनाराधना दपंग उन बायोमे से कुछको नीच उद्धत कर देना चाहता है जिन परमे उक्त टीका-टिपण मादि बातो पता चलता है:टीका-टिप्पसक उल्लेख (1) "पत्रिंशद्गुणा यथा--अप्टी ज्ञानाचारा अप्टी दर्शनाचाराच नपा द्वादश यिधं पसमितम्तिस्रो गुप्रयश्चेति संस्कनटीकायां, * धागया पुरि भोजदेवनृपते राज्ये जयात्युन्न: श्रीमरसागरसेनतो यतिपतत्विा पुगणं महत् / मुक्त्यथं भवमोतिभोगजगतां श्रीनन्दिशिष्यो बुधो कु चाराराणसारममान श्रीचन्द्रनामा मुनिः / / 1 / / श्रीविक्रमादित्यसंवत्सरे सप्तत्यधिकवर्षसहने पुराणसाराभिधानं समासम् /