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जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश
वह हमारे इस प्रकरणकर्ता से, जिसका स्पष्ट 'उमास्वाति' ही प्रसिद्ध नाम है, भिन्न ही है, इस बातको हम बार बार क्या बतलावें ।
श्वेतांबर सिंहानां सहजं राजाधिराजविद्यानां । निह्नवनिर्मितशास्त्राग्रहः कथंकारमपि न स्यात् ॥ ६ ॥
टिप्पर ० - तन्वत्र कुनोलभ्यते यत्पाठांतरसूत्राणि दिगंबरैरेव प्रक्षितानि ? परे तु वक्ष्यंति यदस्मृवृद्धैरचितमेतत्प्राप्य सम्यगिति ज्ञात्वा श्वेतांबराः स्वैरं कतिचित्सूत्राणि तिरोकुर्वन् कतिचिश्च प्राक्षिपन्निति भ्रमभेदार्थं 'श्वेतांबर सिंहानामित्यादि' ब्रमः । कोऽर्थः श्वेतांबरसिंहाः स्वयमत्यंतोदंडग्रंथग्रंथनप्रभूष्णवः पर्शनमितशास्त्रं तिरस्करण- प्रक्षेपादिभिर्न कदाचिदप्यात्मसाद्विद्रधीरन् । यतः 'तस्करा एव जायंते परवस्त्वात्मसात्कराः, निर्विशेषेण पश्यंति स्वमपि स्वं महाशयाः ।'
भावार्थ-यहां पर यदि कोई कहे कि 'यह बात कैसे उपलब्ध होती है कि पाठांतरित सूत्र हैं वे दिगम्बरोंने ही प्रक्षिप्न किये हैं। क्योंकि दिगम्बर तो कहते है कि हमारे वृद्धों द्वारा रचित इस तत्त्वार्थमूत्रको पाकर और उसे समीचीन जानकर श्वेताम्बरोंने स्वेच्छाचारपूर्वक कुछ सूत्रोंको तो तिरस्कृत कर दिया और कुछ नये सूत्रोंको प्रक्षिप्त कर दिया - अपनी ओरसे मिला दिया है । इस भ्रमको दूर करनेके लिये हम 'श्वेताम्बरसिंहानां' इत्यादि पद्य कहते हैं, जिसका अभिप्राय यह है कि — श्वेताम्बरसिंहोंके, जो कि स्वभावसे ही विद्याओं के राजाधिराज है और स्वयं अत्यन्त उद्दंड ग्रन्थोंके रचनेमें समर्थ हैं, निह्नव-निर्मितशास्त्रोंका ग्रहण किसी प्रकार भी नहीं होता है-वे पर निर्मित शास्त्रोंको तिरस्करण और प्रक्षेपादिके द्वारा कदाचित् भी अपने नही बनाते है । क्योंकि जो दूसरेकी वस्तुको अपनाते हैं - अपनी बनाते है -- वे चोर होते है, महान् आशय के धारक तो अपने धनको भी निविशेषरूपसे अवलोकन करते हैं उसमें अपनायतका ( निजत्वका ) भाव नहीं रखते ।'
हैं । तथा कुन्दकुन्द और उमास्वातिकी भिन्नताके बहुत स्पष्ट उल्लेख पाये जाते हैं । अतः इस नामका दिया जाना भ्रान्तिमूलक है ।