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तत्वार्थाधिगमसूत्रकी एक सटिप्पण प्रति
पाठांतरमुपजीव्य भ्रमंति केचिद्वृथैव संतोऽपि । सर्वेषामपि तेषामतः परं भ्रांतिविगमोऽस्तु ॥ ७ ॥ टिप्प० -- अतः सर्वरहस्यको विदा अमृतरसे कल्पनाविषपूरं न्यस्यमानं दूरतस्त्यक्त्वा जिनसमयावानुसाररसिका उमास्वातिमपि स्वतीथिंक इति स्मरतोऽनंत संसारपाशं पतिष्यद्भिर्विशदमपि कलुषीकतु कामैः सह निह्नवैः संगं माकुर्वन्निति ।
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भावार्थ -- कुछ संत पुरुष भी पाठान्तरका उपयोग करके - उसे व्यवहारमें लाकर -- वृथा ही भ्रमते हैं, उन सबकी भ्रान्तिका इसके बादमे विनाश होवे ।
श्रतः जो सर्व रहस्यको जाननेवाले हैं और जिनागमममुद्रके अनुसरण्-रमिक हैं वे अमृतरसमे न्यस्यमान कल्पना-विषपूरको दूरसे ही त्याग कर, उमास्वातिको भी स्वतीर्थिक स्मरण करते हुए, अनन्त संसारके जाल में पड़नेवाले उन निह्नवोंके साथ संगति न करे - कोई सम्पर्क न रक्खें - जो विशदको भी कलुषित करना चाहते है ।
(११) उक्त ७ पद्यों और उनकी टिप्पणीमे टिप्परकारने अपने साम्प्रदायिक कट्टरता से परिपूर्ण हृदयका जो प्रदर्शन किया है— स्वसम्प्रदाय के प्राचार्योको 'सिंह' तथा 'विद्यायक राजाधिराज' और दूसरे सम्प्रदायवालोंको 'कुत्ते' तथा 'दुरात्मा' बतलाया है, अपने दिगम्बर भाइयोंको 'परतीर्थिक' अर्थात् भ० महावीरके तीर्थको न माननेवाले अन्यमती लिखा है और साथ ही अपने श्वेताम्बर भाइयोंकों यह आदेश दिया है कि वे दिगम्बरोंकी संगति न करें अर्थात् उनसे कोई प्रकारका सम्पर्क न रक्खें। - उस सबकी आलोचनाका यहाँ कोई अवसर नही है, और न यह बतलाने की ही ज़रूरत है कि श्वेताम्बरसिंहोने कौन कौन दिगम्बर ग्रंथोंका अपहरण किया है और किन किन ग्रंथोंको ग्रादरके साथ ग्रहण करके अपने अपने ग्रन्थोंमें उनका उपयोग किया है, उल्लेख किया है और उन्हें प्रमाण में उपस्थित किया है । जो लोग परीक्षात्मक, ग्रालोचनात्मक एवं तुलनात्मक साहित्यको बराबर पढ़ते रहते हैं उनसे ये बातें छिपी नही हैं । हाँ, इतना ज़रूर कहना होगा कि यह सब ऐसे कलुतिहृदय लेखकोंकी लेखनी ग्रथवा साम्प्रदायिक कट्टरताके गहरे रंग में रंगे हुए कषायाभिभूत साधुनोंकी कर्ता तका ही परिणाम है— नतीजा है - जो अर्से से एक ही पिताकी संतानरूप भाइयों भाइयोंमें — दिगम्बरों - श्वेताम्बरोंमें— परस्पर मनमुटाव चला जाता है और पारस्परिक कलह तथा विसंवाद शान्त होने में नहीं