________________
-----
--
-
१२६ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश दावेकी ये दोनों बातें कहाँ तक ठीक है- मूलसूत्र, उसके भाष्य और श्वेताम्बरीय प्रागमों परसे इनका पूरी तौर पर समर्थन होता है या कि नहीं, इस विषयकी जाँचको पाठकोंके सामने उपस्थित करना ही इस लेखका मुख्य विषय है।
सूत्र और भाष्य-विरोध सूत्र और भाष्य जब दोनों एक ही प्राचार्यकी कृति हों तब उनमें परस्पर असंगति. अर्थभेद, मतभेद अथवा किसी प्रकारका विरोध न होना चाहिये । और यदि उनमें कहींपर ऐमी असगति, भेद, अथवा विरोध पाया जाता है तो कहना चाहिए कि वे दोनों एक ही प्राचार्यकी कृति नहीं है-उनका कर्ता भिन्न भिन्न है-और इसलिये सूत्र का वह भाप्य 'स्वोपन' नही कहला मकता । श्वेताम्बरोंके तत्त्वार्थाधिगममूत्र और उसके भाप्यमे ऐसी असगति भेद अथवा विरोध पाया जाता है; जैसा कि नीचेके कुछ नमूनोसे प्रकट है:(१) दवेताम्बरीय मूत्रपाठमे प्रथम अध्यायका २३ वा स्त्र निम्न प्रकार है
यथोक्तनिमित्तः पडविकल्पः शेषाणम । इममें अवधिज्ञानके द्वितीय भेदका नाम 'यथोक्तनिमिना' दिया है और भाष्य में 'यथोक्तनिमित्त: क्षयोपशमनिमित्न इत्यर्थः' ऐमा लिखकर 'यथोननिमित्त' का अर्थ 'क्षयोपशमनिमित्त' बतलाया है; परन्तु 'यथोक्त' का अर्थ 'अयोपगम' किसी तरह भी नहीं बनता। 'यथोक्त का मर्वभाधारण अर्थ होता है.---'जमा कि कहा गया', परन्नु पूर्ववर्ती किमी भी मत्रमे 'क्षयोपशमनिमित्त नाममे अवधिज्ञानके भेदका कोई उल्लेख नहीं है और न कही 'क्षयोपशम गब्दका ही प्रयोग आया है, जिममे 'यथोक्त' के साथ उसकी अनृवृत्ति लगाई जा सकती। ऐसी हालतमे 'क्षयोपशनिमित्त' के अर्थ में 'यथाक्तनिमित्त का प्रयोग मूत्रमदर्भके साथ अमंगत जान पड़ता है । इसके मित्राय, 'द्विविधाऽवधिः' इम २१वे मूत्र के भाष्यमें लिखा है--'भवप्रत्ययः क्षयोपशमनिमित्तम्च' और इसके द्वारा अवधिज्ञानके दो भेदोंके नाम क्रमशः ‘भवप्रत्यय' और 'क्षयोपशमनिमित्त' बनलाये हैं। २२वें मूत्र 'भवप्रत्ययो नारकदेवानाम्' में अवधिज्ञानके प्रथम भेदका वर्णन जब भाष्यनिर्दिष्ट नामके साथ किया गया है तब २३वें मूत्र में उसके द्वितीय भेदका वर्णन भी भाष्यनिर्दिष्ट नामके माथ होना चाहिये था और तब उस