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________________ सिलोयपश्याची और विषम वाच्य प्रणामकी वस्तु, यह बात संदर्भपरसे कुछ संगत मासूम नहीं होती। और इसलिये 'द रण' पदका अस्तित्व यहाँ बहुत ही मापत्तिके योग्य जान पड़ता है। मेरी रायमें यह सीसरा परण 'बदुरण परिसवसह' के स्थानपर 'दुइ परीसह. विसही होना चाहिये / इससे गाया अपंकी सब संगति ठीक बैठ जाती है। यह माथा जयषवमाके १०वें अधिकारमें बतौर मंगलाचरणकं अपनाई गई है, वही इसका तीसरा चरण 'दुसहपरीमहबिसहं' दिया है। परिवहकं साथ दुसह (दुःसह) और दुठठ ( दुष्ट) दोनों शब्द एक ही प्रर्यके वाचक है-दोनोंका मामय परीपहको बहुत दुरी तथा असह्य बतलानंका है / लेखकोंकी कृपासे 'दुसह की अपेक्षा 'दुट' के 'दटतण' होजानेको अधिक संभावना है. इसीमे यहाँ 'दुट' पाठ मुझाया गया है, वैमे 'दुसह पाठ भी ठीक है। यहां इतना और भी जान मेना चाहिये कि जयभवनामे इस गाथाके दूसरे चरणमें गुणवसह' के स्थानपर 'पुणहरवमह पाठ ही दिया है. पोर इस तरह इस गायाके दोनों चरणोंमें जो ममती और दि मुझाई गई है उसकी पुष्टि भले प्रकार हो जाती है। दूसरी गाया इस क्लिोयरातोका परिमागा प्राठ हजार श्लोक-जितना बत गया है। साथ ही एक महत्वकी बात और मूचित की है और वह यह कि पाठ हजारका परिमाण गितार प्रयंका पोर करगणस्वरूपका जितना परिमाण है उसके बगबर है। इसमें दो बाते फलित होती हैं-एक तो यह कि सुधगचाय के कमायपाड प्रत्यार यनिवृषभने जो चरिणमूत्र रचे हैं वे इस सबसे पहले रचे जा चुके हैं। दूमगे यह कि कररणस्वर' नामका भी कोई मंच पतिवृषभ के दाग ना गया है, जो अभी तक उपलब्ध नहीं हुपा / वह भी इस ग्रन्धसे पहले बन पापा / बहन मम्भव है कि वह गन्ध उन करणसूत्रोंका ही ममूह हो ओ गणितम् कहलाते हैं और जिनका कितना हो उल्लेख पिनोक-प्रशसि, गोम्मटमार, त्रिलोकसार और धवला-जैसे ग्रन्थों में पाया जाता है। णिमूत्रोंकी-जिन्हें वृत्तिमूत्र भी कहते हैं-मस्या चुकि छह हजार स्लोक-परिमाम्म है प्रतः 'करणस्वरूप' ग्रंपकी संख्या दो हजार श्लोक. परिमाण समझनी चाहिये: तभी दोनों की संख्या मिलकर पाठ हजारका परिमाल इस संपका बंठना है। तीसरी गापामें यह निवेदन किया गया है कि यह प्रवचनर्मातसे प्रेरित होकर मार्गकी प्रभावनाके लिये रखा गया है, इसमें
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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