________________ ww.mmmm 588 जनसाहित्य और इतिहासपर विराद प्रकाश 'दुरण य रिसिवसहं पाठ दिया है , जिसका अर्थ होता है-'ऋषियों में श्रेष्ठ ऋषिको देखकर' / परन्तु 'जदिवसह की मौजूदगी में 'रिसिवसह पद कोई खास विशेषता रखता हुमा मालूम नहीं होता-ऋषि, मुनि यति जैसे शब्द प्राय:समान प्रर्यके वाचक है-पौर इसलिये वह व्ययं पड़ता है। प्रस्तु,इस पिछले पाठको लेकर पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीने उसके स्थानपर 'द्र गण परिसवसह पाठ सुझाया है और उसका अर्थ 'माग्रन्थोंमें श्रेष्ठकों, देखकर भूचित किया है। परन्तु 'परिस' का अर्थ कोषमें 'मा' उपलब्ध नहीं होता किन्तु 'मशं' (बवासीर) नामका रोगविशेष पाया जाता है, मापके लिये 'पारिस' शन्दका प्रयोग होता है। यदि 'परिस' का प्रथं पाप भी मान लिया जाय अथवा 'प' के स्थान पर कल्पना किये गए 'प्र' के लोपपूर्वक इम चरणको 'दट्टणारिसवसहं' ऐसा रूप देकर (जिसकी उपलब्धि कहींसे नही होती) संधिके विश्लेषण-द्वारा इसमेंसे पार्षका वाचक 'मारिस' शब्द निकाल लिया जावे,फिर भी इस चरणमें 'द रण' पद सबसे अधिक खटकनेवाली चीज मालूम होता है. जिमपर अभी तक किसीकी भी दृष्टि गई मालूम नहीं होती / क्योंकि हम पदकी मौजूदगीमें गायाके पर्थकी ठीक संगति नहीं बैठती-उममें प्रयुक्त हमा 'पगणमह' (प्रग्गाम कगे) कियापद कुछ बाधा उत्पन्न करता है और उसमे प्रथं मुव्यवस्थित प्रथया मुशवलित नहीं हो पाता / ग्रन्थकारने यदि 'दाग' ( दृष्टवा) पदको अपने विषयमें प्रयुक्त किया है तो दूसग क्रियापद भी अपने ही विषयका होना चाहिये था मर्थात् वृषभ या ऋषिवषम पादिको देखकर मैंने यह कार्य किया या मे प्रणामादि प्रमुक कार्य करता हूं ऐसा कुछ बतलाना चाहिये था, जिसकी गाथापरसे उपलब्धि नहीं होती। और यदि यह पद दूसरोंमे सम्बन्ध रखता है-उन्हींकी प्रेरणाके लिये प्रयुक्त हुना है तो 'दटटा' और 'पगम, दोनों क्रियापदोंके लिये गाथामें अलग अलग कर्मपदोंकी संगति विठलानी चाहिये, जो नहीं बंटती। गाथाके वसहान्त पदोंमेंसे एकका वाच्य तो देखनेकी ही वस्तु हो और दूसरेका 6 देखो, जनसाहित्य और इतिहास पृ०६ / * देखो, जनसिद्धान्तभास्कर भाग 11 किरण 1, 1080 / * देखो, 'पाइप्रसमहष्णव' कोश /