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१४२ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश
"तत्रायमभिप्रायः-पूर्वतो योजनशतपरिमितं गमनमभिगृहीतम् । न चास्ति सम्भवो यत्प्रतिदिवसं तावती दिगवगाह्या, ततस्तदनन्तरमेवोपदिष्टं देशव्रतमिति देशे-भागेऽवस्थानं प्रतिदिन प्रतिप्रहरं प्रतिक्षणमिति सुखावबोधार्थमन्यथा क्रमः ।"
इसमें अन्यथाक्रमका यह अभिप्राय बतलाया है कि पहलेसे किसीने १८० योजन परिमाण दिशागमनकी मर्यादा ली परन्तु प्रतिदिन उतनी दिशाके अवगाहन का सम्भव नहीं है, इसलिये उसके बाद ही देशव्रतका उपदेश दिया है। इससे प्रतिदिन, प्रतिप्रहर और प्रतिक्षण पूर्वगृहीत मर्यादाके एक देशमेएक भागमे अवस्थान होता है। अत: सुखबोधार्थ-सरलतासे समझानेके लिए यह अन्यथाक्रम स्वीकार किया गया है।'
यह उत्तर बच्चोंको बहकाने जैसा है। समझमें नहीं आता कि देशवतको सामायिकके बाद रखकर उसका स्वरूप वहाँ बतला देनेसे उसके सुखबोधार्थ में कौनसी अड़चन पड़ती अथवा कठिनता उपस्थित होती थी और अड़चन अथवा कठिनता आगमकारको क्यों नहीं सूझ पड़ी? क्या आगमकारका लक्ष्य सुखबोधार्थ नहीं था ? आगमकारने तो अधिक शब्दोंमें अच्छी तरह समझाकरभेदोपभेदको बतलाकर लिखा है। परन्तु बात वास्तवमे मुखबांधार्थ अथवा मात्र क्रमभेदकी नहीं है, क्रमभेद तो दूसरा भी माना जाता है-पागममें अनयंदण्डवतको दिग्व्रतमे भी पहले दिया है, जिमकी मिद्धमेन गरणीने कोई चर्चा नहीं की है। परन्तु वह क्रमभेद गुरगव्रत-गुरगव्रतका है, जिसका विशेष महत्व नहीं, यहां तो उस कमभेदकी बात है जिससे एक गुरगव्रत शिक्षावत और एक शिक्षाव्रत गुरणवत हो जाता है । और इसलिए इस प्रकारकी असगति मुखबोधार्थ कह देने मात्रमे दूर नहीं हो सकती। अत: स्पष्ट कहना होगा कि इसके द्वारा दूसरे शासनभेदको अपनाया गया है। प्राचार्यो-प्राचार्योंमें इस विषयमें कितना ही मतभेद रहा है। इसके लिए लेखकका 'जैनाचार्योंका शासनभेद' ग्रन्थ देखना चाहिए ।
(९) आठवें अध्यायमें 'गतिजाति' पादिरूपसे नामकर्मकी प्रकृतियोंका जो सूत्र है उसमें 'पर्याप्ति' नामका भी एक कर्म है । भाष्यमें इस 'पर्याप्ति' के पांच मेद निम्न प्रकारसे बतलाए है