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श्वे० तत्वार्थसूत्र और उसके भाध्यकी जांच
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"पर्याप्तिः पंचविधा । तद्यथा - आहारपर्याप्तिः शरीरपर्याप्तिः इन्द्रियपर्याप्तिः प्राणापानपर्याप्तिः भाषापर्याप्तिरिति ।"
परन्तु दिगम्बर श्रागमकी तरह श्वेताम्बर श्रागममें भी पर्यासिके छह भेद माने गये हैं छठा भेद मनः-पर्यातिका है, जिसका उक्त भाष्यमें कोई उल्लेख नहीं है । और इस लिये भाष्यका उक्त कथन पूर्णतः श्वेताम्बर आगमके अनुकूल नही है । इस प्रसंगतिको सिद्धसेनगगीने भी अनुभव किया है और अपनी टीका में यह प्रश्न उठाया है कि 'परमप्रार्षवचन ( आगम) में तो षट् पर्याप्तियां प्रसिद्ध हैं, फिर यह पर्याप्तियोंकी पांच संख्या कैसी ?'; जैसा कि टीकाके निम्न वाक्य से प्रकट है
" ननु च पट् पर्याप्तयः पारमार्थवचन प्रसिद्धाः कथं पंचसंख्याका ? इति" |
arent इसके भी समाधानका वैसा ही प्रयत्न किया गया है जो किसी तरह भी हृदय ग्राह्य नहीं है । गरगोजी लिखते हैं- "इन्द्रियपर्याप्तिग्रहणादिह मनः पर्याप्तिरपि ग्रहणमवसेयम् ।" अर्थात् इन्द्रियपर्याप्ति ग्रहणसे यहां मनःपर्याप्तिका भी ग्रहण समझ लेना चाहिये । परन्तु इन्द्रियपर्याप्ति में यदि मन:पर्याप्तिका भी सममन:वेश है औरपर्याप्ति कोई अलग चीज़ नहीं है तो श्रागम में मनः पर्याप्तिका अलग निर्देश क्यों किया गया है ? और मूत्रमें क्यों इन्द्रियों तथा मनको अलग अलग लेकर मतिज्ञानके भेदोंकी परिगणना की गई है तथा संसंज्ञके भेदोंको भी प्राधान्य दिया गया है ? इन प्रश्नोंका कोई समुचित समाधान नही बैठता, और इसलिये कहना होगा कि यह भाष्यकारका ग्रागमनिरपेक्ष अपना मत है, जिसे किसी काररणविशेषके वश होकर उसने स्वीकार
* प्रहार- सरीरेंदियपज्जती प्राणपारण भास-मरणे । चउ पंच पंच छप्पिय इग- विगलाऽसणि सगीरणं ॥ -नवतत्व प्रकररण, गा० ६
प्रहार - सरीरेंदिय - ऊसास- वो मरणोऽहि निव्वत्ती । होइ जम्रो दलियाम्रो करणं एसाउ पज्जती ॥
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- सिद्धसेनीया टीकामें उद्घृत पृ० १६०