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१४४ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश किया है। अन्यथा, इन्द्रियपर्याप्तिका स्वरूप देते हुए वह इसका स्पष्टीकरण जरूर कर देता । परन्तु नहीं किया गया; जैसाकि "त्वगादीन्द्रियनिर्वर्तनाक्रियापरिसमातिरिन्द्रिय पर्याप्तिः" इस इन्द्रियपर्याप्तिके लक्षणसे प्रकट है। अतः श्वेताम्बर आगमके साथ इस भाष्यवाक्यकी संगति बिठलानेका प्रयत्न निष्फल है।
(१०) नवमें अध्यायका अन्तिम सूत्र इस प्रकार है
"संयम - श्रुत - प्रतिसेवना - तीर्थ-लिङ्ग-लेश्योपपातस्थानविकल्पतः साध्याः ।"
इसमें पुलाकादिक पंचप्रकारके निर्ग्रन्थमुनि संयम, श्रुत, प्रतिसेवना प्रादि पाठ अनुयोगद्वारोंके द्वारा भेदरूप सिद्ध किये जाते हैं, ऐसा उल्लेख है। भाष्यमें उस भेदको स्पष्ट करके बतलाया गया है; परन्तु उस बतलाने में कितने ही स्थानों पर श्वेताम्बर आगमके साथ भाष्यकारका मतभेद है, जिसे मिद्धमेन गणीने अपनी टीकामें 'आगमस्वन्यथा व्यवस्थितः', 'अत्रैवाऽन्यथैवागमः', 'अत्राप्यागमोऽन्यथाऽतिदेशकारी' जैसे वाक्योंके साथ आगमवाक्योंको उद्धृत करके व्यक्त किया है । यहाँ उनमेंसे सिर्फ एक नमूना दे देना हो पर्याप्त होगाभाष्यकार 'श्रुत' की अपेक्षा जैन मुनियोंके भेद को बतलाते. हए लिखते है
"श्रुतम् । पुलाक-बकुश-प्रतिसेवनाकुशीला उत्कृष्टनाऽभिन्नाक्षरदशपूर्वधराः । कषायकुशोल-निग्रन्थौ चतुदशपूर्वधरी । जघन्येन पुलाकस्य श्रुतमाचारवस्तु, बकुश-कुशील-निर्ग्रन्थानां श्रुतमष्टी प्रवचनमातरः । श्रुतापगतः केवली स्नातक इति ।"
अर्थात्-श्रुतकी अपेक्षा पुलाक, बकुश और प्रतिसेवना कुशील मुनि न्यादामे ज्यादा अभिन्नाक्षर (एक भी अक्षरकी कमीमे रहित) दगपूर्वके धारी होते हैं । कपायकुशील और निम्रन्थ मुनि चौदह पूर्वके धारी होते हैं । पुलाक मुनिका कमसे कम श्रुत आचारवस्तु है । बकुश, कुशील और निर्ग्रन्थमुनियोंका कमसे कम श्रुत आठ प्रवचनमात्रा तक सीमित है। और स्नातक मुनि श्रनमे रहित केवली होते हैं।
इस विषयमें पागमकी जिस अन्यथा व्यवस्थाका उल्लेख मिद्धमेनने किया है वह इस प्रकार है