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________________ श्वे तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्यकी जाँच १४५ __ "पुलाए णं भंते केवतियं सुयं अहिन्जिज्जा गोयमा ! जहण्णेणं रणवमस्स पुन्वस्स तत्तियं पायारवत्थु', उक्कोसेणं नव पुवाइ संपुण्णाई। वउस-पडिसेवणा-कुसीला जहण्णेणं अट्ठपवयणमायाओ, उकोसेणं चोदसपुव्वाई अहिज्जिज्जा । कसायकुसील-निग्गंथा जहण्णेणं अठ्ठपवयणमायाओ, उकोसेणं चौदसपुव्वाइं अहिग्जिज्जा ।" __इसमें जघन्य श्रुतकी जो व्यवस्था है वह तो भाष्यके साथ मिलती-जुलती है; परन्तु उत्कृष्ट श्रुतकी व्यवस्थामें भाष्यके साथ बहुत कुछ अन्तर है। यहाँ पुलाक मुनियोंके उत्कृष्ट श्रुतज्ञान नवपूर्व तक बतलाया है, जब कि भाप्यमें दसपूर्व तकका स्पष्ट निर्देश है । इसी तरह बकुश और प्रतिसेवनाकुशील मुनियोंका श्रतज्ञान यहाँ चौदहपूर्व तक मीमित किया गया है, जब कि भाष्यमें उसकी चरमर्मीमा दसपूर्व तक ही कही गई है। अत: आगमके साथ इस प्रकारके मतभेदोंकी मौजूदगीमें जिनकी संगति बिठलानेका सिद्धमेन गरणीने कोई प्रयत्न भी नही किया, यह नहीं कहा जा सकता कि उक्त मूत्रके भाष्यका आधार पूर्णतया श्वेताम्बर आगम है। (११) नवमें अध्यायमें उत्तमक्षमादि-दशधर्म-विषयक जो सूत्र है उसके तपोधर्म-सम्बन्धी भाष्यका अन्तिम अंश इस प्रकार है: "तथा द्वादशभिक्षु-प्रतिमाः मासिक्यादयः आसप्तमासिक्यः सप्त, सप्रचतुर्दशैकविंशतिरात्रिक्यस्तिस्रः अहोरात्रिकी. एकरात्रिकी चेति ।" इममे भिक्षुषोंकी बारह प्रतिमानोंका निर्देश है, जिनमें सात प्रतिमाएं तो एकमामिकीमे लेकर मप्तमासिकी तक बतलाई हैं, तीन प्रतिमाएँ सप्तरात्रिकी चतुर्दशरात्रिकी और एकविंशतिरात्रिकी कही है, शेष दो प्रतिमाएँ अहोरात्रिकी और एकरात्रिकी नामकी हैं। सिद्धसेन गगीने उक्त भाष्यकी टीका लिखते हुए आगमके अनुसार सप्तरात्रिकी प्रतिमाएँ तीन बतलाई है --चतुर्दशरात्रिकी और एकविंशतिरात्रिकी प्रतिमाओंको आगम-मम्मत नहीं माना है, और इसलिये आप 'सप्त चतुर्दशैकविंशतिरात्रिक्यस्तिस्रः' इम भाष्यांशको प्रागमके माथ असंगत, पार्षविसंवादि और प्रमत्तगीत तक बतलाते हए लिखते हैं:
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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