________________
जैनसाहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश "सप्तचतुर्दशैकविंशतिरात्रिक्यस्तिस्र इति नेदं परमार्षवचनानुसारिभाष्य किं तर्हि ? प्रमत्त गीतमेतत् । वाचकोहि पूर्ववित् कथमेवं विधमाविसंवाद निबध्नीयात् ? सूत्रानवबोधादुपजात भ्रान्तिना केनापि रचितमेतद्वचनकम् । दोच्चा सत्तराइंदिया तझ्या सत्तराइंदिया - द्वितीया सप्तरात्रकी तृतीया सप्तरात्रिकीति सूत्रनिर्भेद: । द्वे सप्तरात्रे त्रीणीति सप्तरात्राणांति सूत्रनिर्भेदं कृत्वा पठितमज्ञेन सप्तचतुर्दशैकविंशतिरात्रिक्यस्तिस्र इति ।
१४६
अर्थात् -- 'सप्तचतुर्दशै कविशतिरात्रिक्यस्तिस्रः' यह भाष्य परमर्षवचन ( आगम) के अनुकूल नहीं हैं। फिर क्या है ? यह प्रमत्तगीत है - पागलों जैसी बड़ है अथवा किसी पागलका कहा हुआ है । वाचक ( उमास्वाति ) पूर्वके ज्ञाता थे, वे कैसे इस प्रकारका प्राविसंवादि वचन निबद्ध कर सकते थे ? ग्रागमसूत्रकी अनभिज्ञता उत्पन्न हुई भ्रान्तिके कारण किसीने इस वचनकी रचना की है । 'दोच्चा मत्त इंडिया तझ्या सत्तराइंडिया — द्वितीया सप्तरात्रिकी तृतीया सप्तरात्रकी' ऐसा आगमसूत्रका निर्देश है, इसे डेसतरात्रे, श्रीरणीति सप्तरात्राणीति' ऐसा सूत्रनिर्भेद करके किसी अज्ञानीने पढ़ा है और उसीका फल 'सप्तचतुर्दर्शकविंशतिरात्रिtपस्तिस्र' यह भाष्य बना है ।
सिद्धमेनकी इस टीका परमे ऐसा मालूम होता है कि सिद्धसेनके समय में इस विवादापन्न भाष्यका कोई दूसरा श्रागमसंगतरूप उपलब्ध नहीं था, उपलब्ध होता तो वह सिद्धमेन जैसे ख्यातिप्राप्त और साधनसम्पन्न श्राचार्यको जरूर प्राप्त होता, और प्राप्त होनेपर वे उसे ही भाप्यके रूपमे निबद्ध करते -प्रापत्तिजनक पाठ न देते, अथवा दोनों पाठोंको देकर उनके सन्याऽसत्यकी आलोचना करते । दूसरी बात यह मालूम होती है कि सिद्धसेन चूँकि पहले भाष्यको मूल सूत्रकारकी स्वोपज्ञकृति स्वीकार कर चुके थे और सूत्रकारको पूर्ववित् भी मान चुके थे, ऐसी हालत में जिस तत्कालीन वे० श्रागमके वे कट्टर पक्षपाती ये उसके विरुद्ध ऐसा कथन प्रानेपर वे एकदम विचलित हो उठे हैं और उन्होंने यह कल्पना कर डाली है कि किसीने यह अन्यथा कथन भाष्यमें मिला दिया है,