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तत्त्वार्थाधिगमसूत्रकी एक सटिप्पण प्रति १४७ यही कारण है कि वे उक्त भाष्यवाक्यके कर्ताको अज्ञानी और उस भाष्यवाक्यको 'प्रमत्तगीत' तक कहनेके लिए उतारू होगये हैं। परन्तु स्वयं यह नहीं बनला सके कि उम भाष्यवाक्यको किसने मिलाया, किसके स्थानपर मिलाया, क्यों मिलाया, कब मिलाया और इस मिलावटके निर्णयका आधार क्या है ? यदि उन्होंने भाष्यकारको स्वयं मूलसूत्रकार और पूर्व वित् न माना होता तो वे शायद वैसा लिखनेका कभी साहम न करते । उनका यह तर्क कि 'वाचक उनास्वाति पूर्व के ज्ञाता थे, वे कैसे इस प्रकारका पार्षविसंवादि वचन निबद्ध कर सकते थे, कुछ भी महत्त्व नहीं रखता, जबवि अन्य कितने ही स्थानोंपर भी पागमके साथ भाप्यका स्पष्ट विरोध पाया जाता है और जिमके कितने ही नमूने ऊपर बतलाये जा चुके है । पिछले (नं. १०) नमूनेमें प्रदर्शित भाप्यके विषयमें जब मिद्धगेन गगी म्वयं यह लिखते हैं कि "आगमम्त्वन्यथा व्यवस्थितः' -
आगमकी व्यवस्था इसके प्रतिकूल है, और उमकी मगति विटलानेका भी कोई प्रयत्न नहीं करते, तब वहाँ भाष्यकारका पूर्ववित् होना कहाँ चला गया ? अथवा पूर्ववित होते हुए भी उन्होंने वहाँ 'पापं विसंवादि' वचन क्यों निबद्ध किया ? इसका कोई उत्तर मिद्धमेनकी टीका परमे नहीं मिल रहा है और इलिये जब तक इसके विरुद्ध मिद्ध न किया जाय तब तक यह कहना होगा कि भाग्यका उक्त वाक्य श्वे. प्रागमके विरुद्ध है और वह किमीके द्वारा प्रक्षिप्त न होकर भायकारका निजी मन है। और ऐसे स्पष्ट विरोधों की हालत में यह नहीं कहा जा मकता कि भाप्यादिका एकमात्र प्राधार वेताम्बर श्रुत है।
उपसंहार मैं समझता हूँ ये सब प्रमाण, जो ऊपर दो भागोंमें संकलित किये गये हैं, इस बातको बतलाने के लिये पर्याप्त है कि श्वेताम्बरीय तत्वार्थसूत्र और उसका भाष्य दोनों एक ही आचार्यकी कृति नहीं है और न दोनों की रचना सर्वथा श्वेताम्बर आगमोंके आधारपर अवलम्बित है, उसमें दिगम्बर प्रागमोंका भी बहन बडा हाथ है और कुछ मन्तव्य ऐसे भी हैं जो दोनों सम्प्रदायोंसे भिन्न
ॐ हम विषयकी विशेष जानकारी प्राप्त करनेके लिये 'तत्त्वार्थसूत्रके बीजों