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श्वे० सत्वार्थसूत्र और उसके भाष्यकी जांच १४१ "दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकप्रोषधोपवासोपभोगपरिभोगपरिमाणाऽतिथिसंविभागवतसम्पन्नश्च ।"
इस सूत्रमें तीन गुणवतों और चार शिक्षाब्रतोंके भेदवाले सात उत्तरव्रतोंका निर्देश है, जिन्हें शीलव्रत भी कहते हैं। गुणवतोंका निर्देश पहले और शिक्षाव्रतोंका निर्देश बादमें होता है, इस दृष्टिसे इम मूत्रमें प्रथम निर्दिष्ट हुए दिम्वत, देशव्रत और अनर्थदण्डव्रत ये तीन तो गुग्णव्रत हैं; शेष सामायिक, प्रोषधोपवाम, उपभोगपग्भिोगपरिमारण और अतिथिसंविभाग, ये चार शिक्षाक्त है । परन्तु श्वेताम्बर आगममें देशव्रतको गुगावतोंमें न लेकर शिक्षाव्रतोंमें लिया है और इसी तरह उपभोगपरिभोगपरिमारणवनका ग्रहण शिक्षाव्रतोंमें न करके गुरणवतोमें किया है। जैसा कि श्वेताम्बर प्रागमके निम्न सूत्रसे प्रकट है
"पागारधम्म दवालमविहं आइक्खइ, तं जहा--पंचअगुव्वयाई तिरिण गुणवयाई चत्तारि मिक्खावयाई । तिणि गुणव्वयाई, तं जहाअणत्थदंडवेरमणं, दिसिव्वयं, उपभोगपरिभोगपरिमाणं । चत्तारि सिक्खाययाई, तं जहा- सामाइयं. देमावगासियं, पोसहोपवासे, अतिहिसंविभागे ।"
-श्रीपपातिक श्रीवीरदेशना सूत्र ५७
इसमे तत्त्वार्थशास्त्रका उक्त सूत्र श्वेताम्बर अागमके साथ संगत नहीं, यह स्पष्ट है । इस अमगतिको मिद्धमेनगणीने भी अनुभव किया है और अपनी टीकामें यह बतलाते हुए कि 'आर्य (प्रागम) मे तो गुग्णवतोंका क्रमसे आदेश करके शिक्षाव्रतोंका उपदेश दिया है, किन्तु मूत्रकारने अन्यथा किया है, यह प्रश्न उठाया है कि सूत्रकारने परमार्प वचनका किमलिये उल्लंघन किया है ? जैसा कि निम्नटीका वाक्यमे प्रकट है
“सम्प्रति क्रम निर्दिष्ट देशव्रतमुच्यते । अत्राह वक्ष्यति भवान देशव्रतं । परमार्षवचनक्रमकैमाद्भिन्नःसूत्रकारेण? आपे तु गुणव्रतानि कमेणादिश्य शिक्षाब्रतान्युपदिष्टानि सूत्रकारेण त्वन्यथा ।''
इसके बाद प्रश्नके उत्तररूपमें इस असंगतिको दूर करने अथवा उस पर कुछ पर्दा डालनेका यत्न किया गया है, और वह ? म प्रकार है