________________ 458 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश ग्रन्थ-सन्दर्भके साथ उसकी दूसरी कोई गति नहीं; उसका विषय पुनरुक्त ठहरता है। पांचवें, ग्रन्थकारने स्वयं प्रगले पद्यमें वाक्यको उपचारमे 'परार्थानुमान' बतलाया है / यथा स्व-निश्चयवदन्येषां निश्चयोत्पादनं बुधैः / परार्थ मानमाख्यान वाक्यं तदुपचारतः / / 10 / / इन सब बातों अथवा कारणोंमे यह स्पष्ट है कि न्यायावतारमें 'मामीपज' नामका : वें पद्यकी स्थिति बहुत ही मन्दिग्ध है, वह मूल ग्रन्थका पद्य मालूम नही होता / उसे मूल ग्रन्थकार-विरचित ग्रन्थका प्रावश्यक प्रङ्ग माननेमे पूर्वोत्तर पद्योंके मध्यमें उमकी स्थिति व्ययं पड़ जाती है, ग्रन्थको प्रतिपादन-शैली भी उमे स्वीकार नहीं करती , और इसलिये वह अवश्य ही वहां एक उद्धन पच जान पड़ता है, जिसे 'वाक्य' के स्वरूपका ममथर करनेके लिये रत्नकरणपरमे 'उक्तन' मादिक पमें पर किया गया है / उद्धरणका यह कार्य यदि मूलग्रन्थकारके द्वाग नही दार है तो वह; अधिक ममय वादका भी नहीं है क्योकि विक्रमकी, वी शताब्दीके विद्वान् प्रानायं मिषिको टोकामें यह मूकम्पले परिवार है, जिमगे यह मालूम होता है कि उन्हें अपने समयमें न्यायावतार जो प्रतियां उपलब्ध थी उनमें यह पद्य मूनका मन बना पाया। जबतक मिद्धपिसे पूर्व को किमी प्राचीन प्रतिमे उक पद्य प्रनाल नही नवर। प्रो० माहब नो प्रानी विनार-पद्धति' के अनुसार यह कर ही नही मी वह ग्रन्थका अङ्ग नहीं - -अन्य कारक द्वारा योजित नहीं दृप्रा प्रयया प्रा. में कुछ अधिक समय बाद उसमें प्रविय या पक्षिम दृपा है। नान " . माहबनं वैमा कुछ कहा भी नहीं पोर न म पके पापावार उ र . प्रो साहबकी इम विचारपद्धतिमा दर्शन उम पारम भले प्रहार होगा। है जिमे उन्होंने मेरे उस पत्रके उनमे लिखा था जिसमें उनमे कर उन मात पद्यों की बाबत मयुक्तिक राय मागो गई थी जिन्हें मैंने ग्नकरण 3 : प्रस्तावनामें सन्दिग्ध करार दिया था और जिस पत्रको उन्होंने मेरे पत्र-मा। अपने पिछले लेख (अनेकान्त वर्ष 6 कि०१ पृ० 10) में प्रकाशित किया है।