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________________ रत्नकरण्डके कर्तृत्व विषयपर मेरा विचार और निर्णय 457 का लक्षण प्रागम-प्रमाणरूपसे नहीं दिया-यह नही बतलाया कि ऐसे शास्त्रसे उत्पन्न हुमा ज्ञान + प्रागमप्रमाण अथवा शान्दप्रमारण कहलाता है; बल्कि सामान्यतया प्रागमपदार्थ के रूप में निर्दिष्ट हुअा है, जिसे 'रत्नकरण्डमें सम्यग्दर्शनका विषय बतलाया गया है / दूसरे, शान्दप्रमाणमे शास्त्रप्रमाण कोई भिन्न वस्तु भी नही है, जिमकी शाब्दप्रमाणके बाद पृथक रूपमे उल्लेख करनेकी जरूरत होती, बल्कि उसी में अन्नभून है। टीकाकाग्ने भी, शान्दके 'लौकिक' पौर 'शास्त्रज' मे दो भेदोंकी कल्पना करके, यह मूचित किया है कि इन दोनोंका ही लक्षण इस पाठवें पद्यमें प्रागया है / इममे व पद्यमें शाब्दके 'मास्त्रज' भेदका उल्लेग्य नहीं. यह और भी स्पष्ट होजाता है। तीमरे, ग्रन्थभरमें, इससे पहले, 'शास्त्र' या 'पागम-शब्दका कहीं प्रयोग नहीं हुप्रा जिसके म्वरूपका प्रतिपादक ही यह 6 वा पद्य ममझ लिया जाता, पोर न 'शास्त्रज' नाम के भेदका ही मूलगन्यमे कोई निर्देश है, जिसके एक अवयव ( शास्त्र ) का लक्षण-प्रतिपादक यह पद्य हो सकता। चोथे, यदि यह कहा जाय कि वे पद्यमे 'शान्द' प्रमाणको जिस वाक्यमे उत्पन्न हपा बतलाया गया है उसीका नाव नाममे प्रगले पद्य में स्वम्प दिया गया है तो यह बात भी नही बनती: क्योकि व पद्यमे ही 'दृष्टेष्टाव्याहती' प्रादि विशेषणोके द्वारा वाक्यका स्वरूप दे दिया गया है और वह स्वरूप प्रगले पचमें दिये हुए शास्त्रक स्वरूप प्राय: मिलता-जुलता है-उसके 'दृष्टेपटाव्याहत' का 'प्रदृप्टंष्टाविरोधक के साथ साम्य है और उसमें 'मनुल्लघ्य' तथा 'प्राप्तोपज विशेषणोंका भी ममावेग हो सकता है. परमार्थाभिधायि' विशेषण कापयघटन' और 'मा' विशेषणोंके भावका द्यानक है. पोर शान्दप्रमाणको तन्वमाहितयोत्पान' प्रतिपादन करनेसे यह स्पष्ट स्वनित है कि वह वाक्य 'तत्वोपदेशकृत' माना गया है-इस तरह दोनों पचों में बहुत कुछ माम्य पाया जाता है। ऐसी हालत में समर्थनमे उद्धरण के सिवाय + स्व-परावमामी निर्वाध ज्ञानको ही न्यायावतार के प्रथम पचमें प्रमाणका अक्षण बतलाया है, इसलिये प्रमाणके प्रत्येक भेदमें उसकी व्याति होनी चाहिये / * “शाम्दं द्विषा भवति-लोकिक शास्त्रजं चेति / तत्र द्वयोरपि माधारण लक्षणं प्रतिपारितम्"।
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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