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________________ 456 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश यहाँ पर मैं साहित्यिक उल्लेखका एक दूसरा स्पष्ट उदाहरण ऐसा उपस्थित कर देना चाहता हूँ जो ईसाकी ७वीं शताब्दीके ग्रन्थमें पाया जाता है और वह है रत्नकरण्डश्रावकाचारके निम्न पद्यका सिद्ध सेनके न्यायावतार में ज्योंका त्यों उद्धृत होना प्राप्तोपशमनुल्ल ध्यमदृष्टेष्ट-शिरोधकम् / तत्त्वोपदेशकृत्सा शास्त्र कापथ-घट्टनम् / / 6 / / यह पद्य रत्नकरण्डका एक बहुत ही प्रावश्यक प्रग है और उसमें यथास्थानयथाक्रम मूलरूपसे पाया जाता है / यदि इस पद्यको उक्त ग्रन्थसे अलग कर दिया जाय तो उसके कथनका सिलसिला ही बिगड़ जाय / पोंकि ग्रन्थमें, जिन प्राप्त आगम (शास्त्र) और तपोभूत् ( तपस्वी ) के प्रष्ट प्रगसहिन पोर त्रिमूढतादिरहित श्रद्धानको सम्यग्दर्शन बतलाया गया है उनका क्रमश: स्वरूप-निदंग करते हए, इस पद्यमे पहले 'माप्त' का और इसके प्रनन्तर 'तपोभूत' का स्वरूप दिया है; यह पद्य यहां दोनोके मध्यमे अपने स्थानपर स्थित है, और अपने विपक्षका एक ही पद्य है / प्रत्युत इमके, न्यायावतारमे. जहाँ भी यह नम्बर पर ग्थित है, इस पद्यकी स्थिति मौलिकताकी दृष्टिम बहुत ही सन्दिग्ध जान पड़ती हैयह उसका काई प्रावश्यक प्रत मालूम नहीं होता और न इमको निकाल देने से वहां ग्रन्थके मिलमिलेमे अथवा उसके प्रतिपाद्य विषयमें ही कोई बाधा पाती है / न्यायावतारमे परोक्ष प्रमाण के 'अनुमान' और 'मान्द' से दो भेदोका कथन करते हुए, स्वार्थानुमानका प्रतिपादन और समर्थन करने के बाद इस पद्यम ठीक पहले 'शाम' प्रमाणके लक्षणका यह पद्य दिया हुप्रा है * दृप्टेष्टाव्याहताद्वाक्यात् परमार्थाभिधायिनः / तत्वमाहितयात्पन्नं मानं शाब्द प्रकीर्तितम् // 8 // इस पद्यकी उपस्थिति में इसके बादका उपयुक्त पर, जिसमें शास्त्र (पागम) का लक्षण दिया हमा है, कई कारणों से व्यथं पड़ता है। प्रथम तो उसमें शास्त्र •सिद्धपिकी टीकामें इस पचसे पहले यह प्रस्तावना-वाक्य दिया हुमा है-- "तदेवं स्वानुमानलक्षणं प्रतिपाय सद्वता भ्रान्तताविप्रतिपत्ति च निराकृत्य अधुना प्रतिपादितपरार्यानुमानलक्षणं एवाल्पवक्तव्यत्वात् तावच्याम्बमक्षणमाह'।
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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