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________________ रत्नकरण्डके कर्तृत्व विषयपर मेरा विचार और निर्णय 455. प्राप्तमीमांसा, स्वयंभूस्तोत्र और युक्त्यनुशासनके अलावा रत्नकरण्डश्रावकाचारके भी कितने ही पद-वाक्योंको तुलना करके रक्खा गया है जिन्हें सर्वार्थसिद्धि काकारने अपनाया है, और इस तरह जिनका सर्वार्थसिदिमें उल्लेख पाया जाता है। प्रकल कूदेवके तत्वार्थ राजवातिक और विद्यानन्दके श्लोकवातिकमें भी ऐम उल्लेखों की कमी नहीं है। उदाहरणके तौरप' तन्वार्थ-मूत्रगत व अध्यायके 'दिग्देशानथंदण्ड' नामक 21 वे मूत्रमे सम्बन्ध रखने वाले "भोगपरिभोग-संख्यानं पञ्चविध सघान-प्रमाद-बहुवधाऽनिष्ठाऽनुपमेव्यविपयभेदान" इम उभय-वानिक-गन वाक्य और इमकी व्याख्यानोको रत्नकरण्डक 'सहतिपरिहरणार्थ, 'अल्पफल बहुविघातात.' 'यदनिष्ट तद् व्रतयेन' इन तीन पद्यों ( नं. 81 85, 86) के माथ तुलना करके देखना चाहिए, जो इस विषयमे अपनी वाम विशेषता रखते है। परन्तु मरे उक्त नेस्वपरमे जब गन्नकरण्ड पोर सर्वार्थमिद्धिके कुछ तुलनात्मक अंश उदाहरण के तौरपर प्रो. माहब के मामने बनाने के लिए रवन गये कि 'रत्नकरण्ड गर्वामिक्केि का पूज्यपादसे भी पूवकी कृति है और इमनिये रत्नमालाके कर्ता शिवकोटि के गुरु उसके कर्ता नहीं हो सकते ना उन्होंने उत्तर देते हुए लिख दिया कि "मायद्धिकाग्ने उहं नकरण्ड म नहीं लिया, किन्तु मम्भव है. रत्नकरगर कारने ही अपनी रचना सर्वार्थसिद्धिके माधाग्में की हो" / माय हो, नकरण्ड के उपान्यपद्य येन स्वयं योनकलविद्या' को लेकर एक नई कम्पना भी कर डाली और उसके प्राधारपर यह घोषित कर दिया कि 'नकर पडवी रचना न केवल पूज्यपादने पस्नातकालीन है, किनु प्रकला और विद्यानन्दम भी पीछे की है / और इमोको प्रागे चमकर चोधी प्रापनिका कप दे दिया / यहाँ भी प्रोफेसर माहब ने इस बात को भुना दिया कि गिलानेम्वोंके उन्नेखानुसार कुन्दकुन्दाचार्य के उत्तरवर्ती जिन ममन्तभद्रको ग्लक रण्डका कर्ता बनला पाए है उन्हें नो गिलालेखों में भी पूज्यपाद, प्रकलङ्क और विद्यानन्दके पूर्ववर्ती लिखा है, नर उनके रत्नकरण्ड की रचना प्रपने उत्तरवर्ती पूज्यपादादिके बादकी प्रथवा सर्वार्थसिदिके माधारपर को हुई कैसे हो सकती है ?' प्रस्तु; इस विषयमें विशेष विचार गोषी मापत्ति के विचाराऽयमरपर ही किया जायगा।
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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