________________ 454 जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश जाता हो / सारे वर्तमान जनसाहित्यका अवलोकन न तो प्रो० साहबने किया है पोर न किसी दूसरे विद्वान् के द्वारा ही वह अभी तक हो पाया है / पौर जो साहित्य लुप्त हो चुका है उसमे वैसा कोई उल्लेख नहीं था इसे तो कोई भी दृढ़ताके साथ नहीं कह सकता। प्रत्युत इसके, वादिराजके सामने शक सं० 647 में जब रत्नकरण्ड खूब प्रमिद्धिको प्राप्त था और उससे कोई 30 या 35 वर्ष बाद ही प्रभाचन्द्राचार्यने उसपर संस्कृत टीका लिखी है और उसमें उसे साफ तौरपर स्वामी ममन्नभद्रकी कृति घोषित किया है, तब उमका पूर्व साहित्य में उल्लेख होना बहुत कुछ स्वाभाविक जान पड़ता है। वादिराजके सामने कितना ही जनमाहि-य मा उपस्थित था जो प्राज हमारे मामने उपस्थित नहीं है और जिसका उल्लेख उनके ग्रन्थो में मिलता है। ऐसी हालतमे पूर्ववर्ती उल्लेखका उपलब्ध न होना कोई खाम महत्व नहीं रखता और न उसके उपलब्ध न होने मात्रमे रत्नकरण्डकी रचनाको वादिगज के मम मामयिक ही कहा जा सकता है, जिसके कारण प्राप्तमीमामा और रत्नकरण्डके भिन्न कर्तृत्वकी कल्पनाको बल मिलता। दुमरी बात यह है कि उसने व दो प्रकार का होता है-एक ग्रन्यनामका और दूसरा ग्रन्थ के माहित्य तथा उसके किमी विषय-विपका / वादिगजमे पूर्वका जो साहित्य प्रभीतक अपने को अनन्ध है उममें गदि ग्रन्थका नाम का उपलब्ध नहीं होता तो उसमें क्या ? रत्नकराया पद-वाक्यादिक पम माहित्य और उमका विषय विभंग नो उपलब्ध हो रहा है नब यह कंग कहा जा सकता है कि तकरगढका गाई उन्म्ब उपलब्ध नहीं हैं ? नहीं कहा जा जा सकता / प्रा० पूज्यगदने प्रपती माधमिद्धिम स्वामी ममन्समद के प्रन्यो पर. से उनके द्वारा प्रतिरादित प्रर्थको कही शब्दानुमगाके, वही पदानुमरमा के. कही वाक्यानुसरणके, कही अर्थानमरणके, कही भावानुमणके, कही उदाहरण के, कहीं पर्यायान्दप्रयोगके प्रौर कही याम्यान-विवेचनादिक कामे पूर्णत: अथवा अंशत: अपनाया है - ग्रहण किया है-पोर किमका प्रदर्शन मैंने 'सर्वार्थ सिटिपर समन्तभद्रका प्रभाव' नामक अपने लेख में किया है। उसमें भनेकान्त वर्ष 5, किरण 10-11, पृ० 346-352 (लेखनं. 16)