________________ रत्नकरण्डके कर्तृत्व विषयपर मेरा विचार और निर्णय 453 जाकर अनेकान्तमें प्रकाशित हुए है। पौर जिनमें विभिन्न प्राचार्योके एकीकरणकी मान्यताका युक्तिपुरस्सर खण्डन किया गया है तथा जिनका प्रभीतक कोई भी उत्तर साढ़े तीन वर्षका ममय बीत जानेपर भी प्रो० साहबकी तरफसे प्रकाश में नहीं पाया, उनपरसे प्रो० साहबका विलुप्त-अध्याय-सम्बन्धी अपना अधिकांश विचार ही बदल गया हो और इसीमे वे भिन्न कथन-द्वारा शेष तीन भापतियोंको खड़ा करने में प्रवृत्त हाए हों। परन्तु कुछ भी हो, ऐमी अनिश्चित दशामें मुझे तो शेष तीनों प्रापत्तियोंपर भी अपना विचार एवं निर्णय प्रकट कर देना ही चाहिये / तदनुमार ही उमे मागे प्रकट किया जाता है। (2) रत्नकरण्ड पोर प्राप्तमीमांसाका भिन्नकर्तृत्व सिद्ध करनेके लिये प्रो० साहबकी जो दूसरी दलील (युक्ति) है वह यह है कि "रत्नकरण्डका कोई उल्लेख गक संवत् 647 (वादिराज के पाश्वनाथचरितके रचनाकाल ) से पूर्वका उपलब्ध नहीं है तथा उमका प्राप्तमीमामाके माथ एककर्तृत्व बतलानेवाला कोई भी मुप्राचीन उल्लेख नहीं पाया जाता।' यह दलील वास्तव में कोई दलील नहीं है; क्योंकि उल्नेखानुपलब्धिका भिन्नकतत्यके साथ कोई अविनाभावी सम्बन्ध नहीं है-उल्लेखक न मिलने पर भी दोनों एक कर्ता होने मे स्वरूपसे कोई बाधा प्रतीत नहीं होती। दमके मिवाय. यह प्रश्न पैदा होता है कि रत्नकरण्डका वह पूर्ववर्ती उल्लेख प्रो. मा० को उपलब्ध नहीं है या किसीको भी उपलब्ध नहीं है अथव। वर्तमान में कही उसका अस्तित्व ही नहीं प्रोर पहले भी उमका पस्तित्व नहीं था ? यदि प्रो. माहरको वह उल्लेम्प उपलब्ध नहीं और किसी दूसरेको उपलब्ध हो तो उसे अनुपलब्ध नहीं कहा जामकताभले ही वह उसके द्वारा प्रभी तक प्रकाश न लाया गया हो। मीर यदि किमीके द्वारा प्रकाशमें न लाये जाने के कारण ही उमे दूमरीके द्वारा भी अनुपलब्ध कहा जाय और वर्तमान साहित्य में उसका अस्तित्व हो तो उसे सर्वथा अनुपलन्ष प्रथवा उस उल्लेखका प्रभाव नहीं कहा जा मकता / मौर वर्तमान साहित्य में उम उल्लेख के अस्तित्वका प्रभाव तभी कहा जा सकता है जब सारे साहित्यका भले प्रकार अवलोकन करने पर वह उनमें न पाया भनेकान्त वर्ष 6, कि० 10.11 प्रौर वर्ष 7, कि० 1-2