________________ रत्नकरण्डके कतृत्व विषयपर मेरा विचार और निर्णय 456 की बातका स्पष्ट शब्दोंमें कोई युक्तिपुरस्सर विरोध ही प्रस्तुत किया हैउसपर एकदम मौन हो रहे है। अतः ऐसे प्रबल साहित्यिक उल्लेखोंकी मौजूदगी में रत्नकरगडको विक्रमकी ११वीं शताब्दीकी रचना अथवा रत्नमालाकारके गुम्की कृति नहीं बतलाया जा सकता और न इम कल्पित ममयके प्राधार पर उसका प्राप्तमीमांसामे भिन्नकर्तृत्व ही प्रतिपादित किया जा सकता है। यदि प्रो० माहव माहित्यक उल्लेवादिको कोई महत्व न देकर ग्रन्थके नामोल्लेख को ही उमका उल्लेख समझते हों तो वे प्राप्तमीमामाको कुन्दकुन्दाचायंम पूर्वकी तो क्या, ग्रकलङ्कके ममयमे पूर्व की अथवा कुछ अधिक पूर्वकी भी नहीं कह सकेगे; क्योकि प्रकलङ्कम पूर्वके माहित्य में उसका नामोल्लेख नहीं मिल रहा है / प्रेमी हालत में प्रो० माहवकी दूसरी प्रापनि का कोई महत्व नहीं रहना, वह भी ममुचित नहीं कही जा सकती और न उसके द्वारा उनका अभिमत ही सिद्ध किया जा सकता है। (3) गन्न करा, और प्रातमीमामाका भिन्नमव सिद्ध करने के लिये प्रोफेसर हीरालाल जी की जो नीमगे दलील (युनि) है, उसका मार यह कि 'वादिगज-मूरिक पाम्वनाथ वाग्लम प्राममीमामाका ना दवागम' नामस उलेम्व करते हा 'स्वामि कृत' कहा गया है और रहकरण्टको ग्व मिकत न कहकर 'योगीन्द्रकत' बतलाया है। स्वामी का अभिप्राय म्वामी ममन्नभन में और 'योगीन्द्र' का अभिवाय उम नामक किमी प्राचार्य में प्रयवा ग्राममीमामाकान्ये भिन्न किमो दूसरे ममन्तभदमे है। दोनो ग्रन्योर एक ही ममन्नमा नदी हो सकने अथवा यो कहिये कि वादिराज-मम्मत नहीं हो मम्ने, क्योय दानों मन्योंक उल्लेब-सम्बन्धी दोनों पक्षों म यमे 'विन्य-महिमादेव: नाममा एक पग पसा हुमा है जिसके देव गन्दका अभिप्राय देवनन्दी पूज्यपादन है और जो उनके गदगास्त्र (जने..) की गवनाको सायमें लिए हा है। जिन पद्योपरसे इम युक्तिवाद अथवा नकर और प्राप्तमीमामाने पर सपर भापत्तिका जन्म हुमा है वे इस प्रकार है: "स्वामिनिश्चरितं तस्य कस्य नो विस्मयावहम् / / देवागमेन सर्वज्ञो येनाऽगापि प्रदर्श्यते // 17 / /