________________ 460 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश अचिन्त्यमहिमा देवः सोऽभिवन्द्यो हितैषिणा / शब्दाश्च येन सिद्धयन्ति साधुत्व प्रतिलम्भिताः // 28 // त्यागी स एव योगीन्द्रो येनाऽक्षय्यसुखावहः / अर्थिने भव्यसार्थाय दिटो रत्नकरण्डकः // 1 // इन पद्यों मेसे जिन प्रथम और तृतीय पद्योंमें प्रन्योका नामोल्लेख है उनका विषय स्पष्ट है और जिसमें किसी ग्रन्थका नामोल्लेख नहीं है उस द्वितीय पयका विषय अस्पष्ट है, इस बातको प्रोफेसर साहबने स्वयं स्वीकार किया है / पौर इसीलिये द्वितीय पद्यके प्राशय तथा अर्थ-विषयमें विवाद है-एक उसे स्वामी समन्तभद्र के साथ सम्बन्धित करते है तो दूमरे देव नन्दी पूज्यपादके माय / यह पद्य यदि क्रमम तीमरा हो और तीसरा मरे के स्थानपर हो, और ऐमा होना लेखकोंकी कृपासे कुछ भी असम्भव या अस्वाभाविक नहीं है, तो फिर विवाद के लिये कोई स्थान ही नहीं रहता; तब देवागम (माप्तमीमांमा) और ग्लकरण्ड दोनों निर्विवादम्पमे प्रचलित मान्यताके अनुरूप स्वामी समन्तभद्र के साथ सम्भधित हो जाते हैं और शेष पद्यका मम्बन्ध देवनन्दी पूज्यपाद पोर उनके शन्दशास्त्रसे लगाया जा सकता है / चकि उत्त. पानाथरित-मम्बन्धी प्राचीन प्रतियों की खोज अभी तक नहीं हो पाई है, जिसमें पद्योंकी कमभिन्नताका पता चलता और जिसकी कितनी ही मम्भावना जान पड़ती है, प्रत. उपलब्ध क्रमको लेकर ही इन पद्योंके प्रतिपाद्य विषय अथवा फलितार्थपर विचार किया जाता है: पद्योंके उपलब्ध क्रमपरसे दो बाने फलित होनी है-एक तो यह कि तीनों पद्य स्वामी समन्तभद्रकी स्तुतिको लिये हए है और उनमें उनकी तीन कृतियोंका उल्लेख है; और दूसरी यह कि तीनों पद्योंमें क्रमश: तीन प्राचार्यों और उनकी नीन कृतियोंका उल्लेख है। इन दोनोंमेंसे कोई एक बात ही ग्रन्थकारके द्वारा अभिमत और प्रतिपादित हो सकती है-दोनों नहीं / वह एक बात कोनमी होसकती है, यही यहाँ पर विचारणीय है / तीमरे पद्यमें उल्लिखित 'रत्नकरणक' यदि वह रत्नकरण्ड या रत्नकरण्डश्रावकाचार नहीं है जो स्वामी समन्त भद्रकी कृतिरूप में प्रसिद्ध और प्रचलित है, बल्कि योगीन्द्र' नामके प्राचार्य-द्वारा रचा हुमा उमी नमा