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________________ रत्नकरण्डके कत्व विषयपर मेरा विचार और निर्णय 461 का कोई दूसरा ही ग्रन्थ है, तब तो यह कहा जा सकता है कि तीनों पद्योंमें तीन माचार्य और उनकी कृतियों का उल्लेख है- भले ही वह दूमग रत्नकरण्ड कहीं पर उपलब्ध न हो अथवा उमके अस्तित्वको प्रमाणित न किया जा मके / और तब इन पद्योंको लेकर जो विवाद खड़ा किया गया है वही स्थिर नहीं रहता-समाप्त हो जाता है अथवा यो कहिये कि प्रोफेसर माहब की नीमरी भापति निराधार होकर बेकार हो जाती है / परन्तु प्रो० साहबको दूमग रत्न. करण्ड इष्ट नही, तभी उन्होंने प्रचलित रत्नकरण्डके ही छटे पद्य 'पिपामा' को मातमीमामाके विरोधमें उपस्थित किया था, जिमका ऊपर परिहार किया जा चुका है / और इमलिये तीमर पद्यमे उल्लिखित 'रत्नकरण्डक' यदि प्रचलित रलकरण्श्रावकाचार ही है तो नीनों पद्योंको स्वामी समन्तभद्रके माय ही सम्बन्धित कहना होगा, जबतक कि कोई स्पष्टबाधा इसके विरोधमे उपस्थित न की जाय / इसके मिवाय, दूमरी काई गति नहीं; क्योंकि प्रचालन र नकरण्डको माप्तमीमांसाकार स्वामी समन्नभद्रकृत माननेमे कोई बाधा नहीं है, जो बाधा उपस्थित की गई थी उसका ऊपर दो प्रापत्तियोंका विचार करते हुए भले प्रकार निरसन किया जा चुका है और यह नीमरी प्रापत्ति अपने स्वरूपमे ही स्थिर न होकर प्रमिद नया मदिग्ध बनी हुई है। पोर इमलिये प्रो० साहब के अभिमतको सिद्ध करने में असमर्थ है / जब प्रादि-ग्रन्नके दोनों पद्य म्वामी ममन्तभद्रम सम्बन्धित हों तब मध्यके पद्यको दूमरेके साथ सम्बद्ध नहीं किया जा सकता। उदाहरण के तौरपर कल्पना कीजिये कि रत्नकरण्डके उल्लेम्ब वाने नीमरे पद्यक स्थानपर स्वामी समन्तभद-प्रणीत स्वयमूम्नोत्रके उस्लेखको लिये हा निम्न प्रकारके प्राशयका कोई पद्य है:-- 'स्वयम्भन्तुतिकर्तारं भम्मव्याधि-विनाशनम। विराग-द्वेष-वादादिमनेकान्तमत नुमः / / ' ऐसे पचकी मौजूदगी में क्या दितीय परमें उल्लिखित 'देव' शब्दको देवनन्दी पूज्यपादका वाचक कहा जा सकता है ? यदि नहीं कहा जा सकता तो रत्नकरणके उस्लेखवाले पथकी मौजूदगी में भी उसे देवनन्दी पूज्यवादका वारक नहीं कहा जा सकता, उम वक्त तक जब तक कि यह मिड न
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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