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________________ 462 जैनसाहित्य और इतिहासपर विषद प्रकाश कर दिया जाय कि रत्नकरण्ड स्वामी समन्तभद्रकी कृति नहीं है। क्योंकि प्रसिद्ध साधनोंके द्वारा कोई भी बात सिद्ध नहीं की जा सकती। इन्हीं सब बातोंको ध्यान में रखते हुए, पाजसे कोई 23 वर्ष पहले रत्नकरण्श्रावकाचारको प्रस्तावनाके सायमें दिये हुए स्वामी समन्तभद्रके विस्तृत परिचय (इतिहास) में जब मैंने 'स्वामिनश्चरितं तस्य' और 'त्यागी म एव योगीन्द्रो' इन दो पद्योंको पाश्र्वनाथचरितमें एक माथ उद्धत किया था तब मैने फटनोट (पादटिप्पणी) में यह बतला दिया था कि इनके मध्य में प्रचिन्न्यमहिमा देवः' नामका एक तीमरा पद्य मुद्रित प्रतिमें और पाया जाता है जो मेरी राय में इन दोनों पद्यके बाद होना चाहिये-तभी वह देवनन्दी आचार्यका वाचक हो सकता है। साथ ही, यह भी प्रकट कर दिया था कि "यदि यह तीमग पद्य सचमुच ही ग्रन्थकी प्राचीन प्रनियों में इन दोनों परीके मध्यम ही प या जाना है पोर मध्यका ही पद्य है तो यह कहना पडेगा नि वादिगजने ममनभद्र को अपना हिन चाहने वालोके द्वाग वन्दनीय और प्रचिन्य महिमावाला देव प्रतिदिन किया है माथ ही, यह लिखकर कि उनके द्वारा सद भने प्रकार सिद्ध होते है, उनके किमी व्याकरण ग्रन्थका उल्लेख किया है। अपनी इस दृष्टि पोर रायके अनुरूप ही में प्रचिन्यमरिमा देव.' पद्यम प्रधानतः देवागम' मोर 'रत्नकरण्ड के उलनेखवाने पद्यके उन रवी सीमा पद्य मानता पारहा है और नदनुमार ही उसके 'देव पदका देवनदी प्रथ करनेमे प्रवृन हमा हैं। प्रतइन तीनों पद्योंके कमविश्यमे मगे दृष्टि पोर मान्यताको छोड़कर किमीको भी मेरे उस प्रथका दुपयोग नहीं करना चाहि जो समाधिजन्यकी प्रस्तावना नया मामाधु-म्मरगण-मङ्गल-पाठ में दिया हुप्रा है।। क्योंकि मुदिनप्रतिका पद्य - कम ही ठीक होनेपर में उस पर 'देव'परको समनभद्रका ही वावक मानता हूँ और इस तरह तीनों पद्योंकी ममतमा के स्सुनि. विषयक समझता है / अनु। अब देखना यह है कि क्या उक्त तीनों पद्यों को स्वामी समनभरके माथ प्रो० साहबने अपने मतकी पुष्टि उमे पेश करके सबपुष ही उसका दुरुपयोग किया है।
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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