________________ रत्नकरण्डके कर्तृत्व विषयपर मेरा विचार और निर्णय 463 सम्बन्धित करने अथवा रत्नकरण्डको स्वामी समन्तभद्रकी कृति बतलाने में कोई दूसरी बाधा पाती है ? जहाँ तक मैने इस विषय पर गंभीरताके माथ विचार किया है, मुझे उममें कोई बाधा प्रतीत नहीं होती। तीनों पद्यों में क्रमश: तीन विशेषणों स्वामी, देव और योगीन्द्र के द्वारा ममन्नभद्रका स्मरण किया गया है। उक्त कपगे रखे हुए नोनों पद्यों का अर्थ निम्न प्रकार है.___ 'उन म्वामी ( मनन्तभद्र ) का चरित्र किमके लिये विस्मयकारक (ग्राइचर्यजनक ) नहीं है जिन्होंने 'देवागम' ( प्रातमीमामा ) नामके अपने प्रवचन-द्वारा प्राज भी मवजको प्रदगित कर रकम्वा है / व अचित्यहिमा-युन देव (ममन्तभद्र) अपना हित चाहनेवालों के द्वारा गदा वन्दनीय है, जिनके द्वारा ( मयंज ही नहीं किन्तु ) पद भी * भने प्रकार सिद्ध होते है / वे ही योगीन्द्र (ममन्तभद्र ) मनचे प्रयमित्यागी (म्यागभावगे यन, अथवा दाना हा है जिन्होंने मम्वार्थी भव्यगमू के लिए प्रक्षयम्बका कारगाभन धर्मरत्नों का विदाग-'मलकर' नामका धर्मगाव-दान किया है। इम प्रथं परसे स्पष्ट है कि दम नया नीमरे पद्यमी कोई बात नही जा स्वामी समन्तभद्र के गाथ रहन न थेटनी हो। ममनभटकं लिए 'देव विभाग का प्रयोग कोई अनावी अथवा उनके पदने का अधिक नीज नहीं है / वागमकी वमनदि-वनि, गन प्रसाधरको मागारधमान-टीका, प्राचार्य जपंगेनको समयमार-टीका, नगेन मानायक सिद्धान्तमार-मग्रह मोर पाममीमामामूली एक वि० मबत 12 को प्रतिको अन्तिम पटियकामे समन्तभद्रक माय 'हव' पदका खुला प्रयोग पाया जाता है. जिन मरके प्रवण प० दरबारीलालजी कोठियाके नम्बम घृन हो चुके है +1 इसके मिनाय वादिगजके पावनायग्निमे 47 वर्ष पूर्व शक म०१.० में लिखें गये चामुण्डरायके विष्ठिशलाका महापराया में भी 'देव' उपपदके माथ ममन्नभद्रका स्मरण किया गया है और उन्हें तन्वायंभारयादिका का लिखा है। * मूल में प्रयक्त हा 'च' दामका प्रयं / + अनेकान्त वर्ष 8 कि. 10-11. पृ. 110-11 प्रनेकान्त वर्ष कि० 110 33