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समन्तभद्रके प्रन्योंका संक्षिस-परिचय बड़ा ही महत्त्वशाली है, निर्मल-सूक्तियोंको लिये हुए है और चतुर्विशति जिनदेवोंके धर्मको प्रतिपादन करना ही इसका एक विषय है। इसमें कहीं कहीं परकिसी-किसी तीर्थकरके सम्बन्धमें-कुछ पौराणिक तथा ऐतिहासिक बातोंका भी उल्लेख किया गया है, जो बड़ा ही रोचक मालूम होता है। उस उल्लेखको छोड़कर शेष मंपूर्ण ग्रंथ स्थान स्थान पर, तात्त्विक वर्णनों और धार्मिक शिक्षामोंसे परिपूर्ण है। यह ग्रंथ अच्छी तरहमे ममझ कर नित्य पाठ किये जानेके योग्य है । इसका पूरा एवं विस्तृत परिचय 'ममन्लभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र' इस नामके निवन्धमें दिया गया है। ___ इस ग्रन्थपर क्रियाकलापके टीकाकार प्रभाचन्द्र आचार्यकी बनाई हुई अभी तक एक ही संस्कृतटीका उपलब्ध हुई है। टीका माधारणतया अच्छी है परन्तु ग्रन्थके रहस्यको अच्छी तरह उद्घाटन करनेके लिये पर्याप्त नही है। ग्रन्थपर अवश्य ही दूसरी कोई उत्तम टीका भी होगी, जिसे भंडारोंमें खोज निकालनेकी जरूरत है। यह स्तोत्र 'कियाकलाप' ग्रन्थमें भी मंग्रह किया गया है, और कियाकलापपर पं० प्राशाधरजीकी एक टीका कही जाती है, इसमे इम ग्रंथपर पं० आशाधरजीको भी टीका होनी चाहिये ।
४ स्तुतिविद्या यह प्रथ 'जिनम्नुतिगतक 'जिनम्नुनिशनं,' 'जिनमतक' और 'जिनशतकालकार' नामोंमें भी प्रसिद्ध है, भक्तिरसमे लबालब भरा हुआ है, रचनाकौशल नथा चित्रकाव्योंके उत्कर्पको लिये हुए है, सर्व प्रलंकारोंमे भूषित है और इतना दुर्गम तथा कठिन है कि विना मंस्कृनटीकाकी महायता के अच्छे-अच्छे विद्वान् भी इमे सहमा नहीं लगा मकते। इसके पद्योंकी सख्या ११६ है और उनपर एक ही संस्कृतटीका उपलब्ध है जो बसुनन्दीकी बनाई हुई है। वमुनन्दीसे पहले नरसिंह विभाकरकी टीका बनी थी, जो इस मुपद्मिनी कृतिको विकसित करने वाली थी और जिससे पहले इस ग्रंथपर दूसरी कोई टीका नही थी, ऐसा टीकाकार वमुनन्दीके एक वाक्यमे पाया जाता है। यह टीका माज उपलब्ध नहीं है पौर संभवतः वसुनन्दी के समय (१२वी शताब्दी)में भी उपलब्ध नहीं थी केवल उसकी जनश्रुति ही प्रवशिष्ट थी ऐसा जाना जाता है । प्रस्तुत टीका अच्छी