________________ समन्तभद्रका समय और डा० के.बी. पाठक 303 नापोढमभ्रान्तं प्रत्यक्षमिति लक्षणमस्यार्थः प्रत्यक्षप्रत्यायन" इस वाक्यके द्वारा उदाहरणके तौरपर अपने समयमें खाम प्रसिद्धिको प्राप्त धर्मकीतिके प्रत्यक्षलक्षणको लक्षणार्थ बतलाया है। अन्यथा, "प्रत्यक्ष कल्पनापोढम्' यह लक्षण भी लक्षणार्थ कहा जासकता है / इसी तरह धर्मकीतिके वाद होनेवाले जिन जिन विद्वानोंने प्रत्यक्षको निर्विकल्पक माना है उन सबका मत भी प्रापन्न तथा बाधित हो जाता है, और इससे ममन्तभद्र इतने परमे ही जिम प्रकार उन अनुकरणशील विद्वानोंके बादके विद्वान् नहीं कहे जासकते उसी प्रकार दे धर्मकीनिके बादके भी विद्वान् नहीं कहे जासकते / अत: यह हेतु प्रसिद्धादि दोषोंमे दूषित होने के कारण अपने साध्यकी सिद्धि करने में ममर्थ नहीं है। यहाँपर मैं इतना और भी बतला देना उचित समझता हैं कि प्रत्यक्षको निर्विकल्पक माननेके विषय में दिग्नागकी भी गणना अनुकरणशील विद्वानोंमें ही है; क्योंकि उनके पूर्ववर्ती प्राचार्य वमबन्धुने भी सम्यकज्ञानरूप प्रत्यक्षको 'निर्विकल्प' माना है, और यह बात उनके विज्ञप्तिमात्रतामिद्धि' तथा 'त्रिशिका विज्ञप्तिकारिका' जैसे प्रकरण-ग्रन्थों पर साफ ध्वनित है। इसके मिवाय वबन्धुमे भी पहलेके प्राचीन बौद्र माहित्य में इस बातके प्रमाण पाये जाते हैं कि बौद्ध सम्प्रदायमे उम मम्यक ज्ञानको निर्विकल्प' माना है जिसके 1 प्रत्यक्ष, 2 अनुमान ऐसे दो भेद किये गये है और जिन्हें धर्मकीनिने भी. न्यायबिन्दुमें, "द्विविधं सम्यग्ज्ञानं प्रत्यक्षमनुमान च" इस वाक्य के द्वारा अपनाया है; जैसा कि 'लंकावतारमूत्र' में दिये हुए 'मम्यक ज्ञान' के म्वरूपप्रतिपादक निम्न बुद्ध-वाक्यम प्रकट है 'मयान्यैश्च तथागतैरनुगम्य यथावहशिनं प्रज्ञप्तं विवृतमुत्तानीकृतं यत्रानुगम्य मभ्यगवबोधानुच्छेदाशाश्वततो विकल्पम्य प्रवृतिः म्वप्रत्यास्मार्यज्ञानानुकूलं तीथकरपक्षपर पक्षश्रावकप्रत्येकबुद्धागतिलक्षणं तत्सम्यरज्ञानम् / " पृ०२२८ * ये दोनों ग्रंथ संस्कृतवृत्तिसहित सिलवेन लेवीसके द्वारा संपादित होकर परिसमे मुद्रित हुए है। पहलेकी वृत्ति स्वोपन जान पड़ती है, और दूसरेकी वृत्ति प्राचार्य स्थिरमतिकी कृति है।