________________ 304 . जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश जब 'सम्यग्ज्ञान' ही बौद्धोंके यहाँ बहुत प्राचीनकालसे विकल्पकी प्रवृत्तिसे रहित माना गया है तब उसके अंगभूत प्रत्यक्षका निर्विकल्प माना जाना स्वतः सिद्ध है। बहुत सम्भव है कि पार्य नागार्जुनके किसी ग्रन्थमें सम्भवत: उनकी 'युक्तिषष्ठिकाकारिका' में-प्रत्यक्षका प्रकल्पक अथवा निर्विकल्पक रूपसे निर्देश किया गया हो और उसे लक्ष्यमें रखकर ही समन्तभद्रने अपने युक्त्यनुशासनमें उसका निरसन किया हो / प्रार्य नागार्जुनका समय ईसवी सन् 181 बतलाया जाता है और समन्तभद्र भी दूसरी शताब्दीके विद्वान् माने जाते हैं। दोनों ग्रन्थोंके नामोंमें भी बहुत कुछ साम्य है और दोनोंकी कारिकासंख्या भी प्राय: मिलती-जुलती है / युक्त्यनुशासनमें 64 कारिकार है-मुख्य तो 60 ही है-और इममे उमेभी युक्तिषष्ठिका प्रथवा 'युक्तधनुशासनपष्ठिका' कहमकते है। ये सब बातें उक्त सम्भावनाकी पुष्टि करती है / यदि वह ठीक हो-पौर उमको ठीक मानने के लिये भोर भी कुछ महायक मामग्री पाई जाती है, जिसका उल्लेख मागे किया जायगा तो ममन्तभद्र प्राय: नागर्जुनके समकालीन विद्वान् ठहरने है। धर्मकीनिके बादके विद्वान तो वे किमी नरह भी सिद्ध नहीं किये जामकते / / दूसरे हेतुरूपमे जो बात कही गई है वह भी अमिद है अर्थात् प्राप्तमीमामाकी उम 80 नम्बरकी कारिकामे उपलब्ध ही नहीं होनी, जो इस प्रकार है माध्यमाधन विज्ञप्तेयदि विज्ञप्तिमात्रना / न माध्यं न च हेतुश्च प्रतिवा-हेतु-दोषतः / / इसमें न नो धर्मकीतिका नामोल्लेम्ब है और न "सहापलम्भनियमादमंदी नीलतद्धियोः" वाक्यका / फिर समन्तभद्रकी प्रोग्मे यह कहना कम बन सकता है कि 'धमंकीति अपना विरोध खुद करता है जब कि यह महोपलम्भनियमात् इत्यादि वाक्य कहता है ?' मालूम होता है प्रमहनी-जैमी टीका 'सहोपलम्भनियमात् इत्यादि वाक्यको देखकर और उसे धर्मकीनिके प्रमागगविनिश्चय ग्रन्थमें भी पाकर पाठक महाशयने यह मब कल्पना कर डाली है ! ॐ नागार्जुनके इस ग्रन्थका उल्लेख डाक्टर सतीश चन्द्रने अपनी पूर्वाग्लेम्बित 'हिस्टरी प्राफ़ इण्डियन लॉजिक' में किया है; देखो, उसका 10 70 / है देखो, पूर्वोल्लेखित तस्वसंग्रह' ग्रन्थकी भूमिकादिक /