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________________ समन्तभद्र का समय और डा० के. बी. पाठक 305 परन्तु प्रष्टसहस्रीमें यह वाक्य उदाहरणके तौरपर दिये हुए कथनका एक अंग है, इसके पूर्व 'तथाहिं' शब्दका भी प्रयोग किया गया है जो उदाहरणका वाचक है और साथमें धर्मकीतिका कोई नाम नहीं दिया गया है; जैसाकि टीकाके निम्न प्रारम्भिक प्रंशसे प्रकट है___ "प्रतिज्ञादोपस्तावत्स्ववचनविरोधः साध्यसाधनविज्ञानम्य विज्ञप्तिमात्रमभिलपतः प्रसज्यते / तथाहि / सहोपलम्भनियमादभेदी नीलतद्धियादिचन्द्रदर्शनवदित्यत्रार्थसंविदा सहदशनमुपेत्येकत्वकान्त साधयन कथमवधेयाभिलाप: ?' पृ० 242 ऐमी हालतमें टीकाकार के द्वाग उदाहरणरूपमे प्रस्तुत किये हुए कथनको मूल ग्रन्थकारका बनला देना अति माहमका कार्य है ! मूलमें तो विज्ञप्तिमात्रताका सिद्धान्त माननेवालो ( बौद्धों) पर आपत्ति की गई है और इस मिद्धान्तके माननवाले ममन्तभद्रके पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती दोनों ही हए है। अतः इस प्रापनिमें जिस प्रकार पूर्ववर्ती विद्वानोंकी मान्यताका निरसन होता है वैसे ही उनग्वनी विद्वानोंकी मान्यताका भी निगमन होजाता है / इसीमे टीकाकारोंको उनमेमे जिम मतका निरमन करना इष्ट होना है वे उमीके वाक्यको लेकर मूलके आधार पर उमका खण्डन कर डालते है और इसीसे टीकानों में प्रायः 'एतेन एतदपि निरस्तं-भवति-प्रत्युक्त भवति', 'एतेन यदत्त भट्ट न... तन्निरम्नं ( अपमहम्री) जैसे वाक्यों का भी प्रयोग पाया जाता है / और इस लिये यदि टीकाकारने उत्तरवर्ती किमी विद्वान के वाक्यको लेकर उसका निरसन किया है तो इसमे वह विद्वान मूल कारका पूर्ववर्ती नहीं होजाता-टीकाकारका पूर्ववर्ती जरूर होता है / मूलकारको तब उसके बादका विद्वान् मानना भारी भूल होगा और ऐमी भूलोंसे ऐतिहामिक क्षेत्रमे भारी अनर्थोकी संभावना है क्योंकि प्रायः सभी सम्प्रदायोंके टीकाग्रंथ यथावश्यकता उत्तरवर्ती विद्वानोंके मतोंके खण्डनमे भरे हुए हैं। टीकाकारोंकी दृष्टि प्रायः ऐतिहासिक नहीं होती किन्तु मैद्धान्तिक होती है। यदि ऐतिहासिक हो तो वे मूलवाक्योंपरमे उन पूर्ववर्ती विद्वानोके मतोंका ही निरसन करके बतलाएँ जो मूलकार लक्ष्यमें थे। - इसके सिवाय, विज्ञप्तिमात्रताका सिद्धान्त धर्मकीतिक बहुत पहलेसे माना जाता था, वसुबन्धु जैसे प्राचीन प्राचार्योंने उसपर 'विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि' और
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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