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________________ 302 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशव प्रकाश पाठक महाशयने अपने 'भर्तृहरि पौर कुमारिल' नामके लेखमें किया है। इसके सिवाय तत्त्वार्थराजवातिकमें अकलंकदेवने जो निम्न लोक 'तथा चोक्त' शब्दोंके साथ उद्धृत किया है उसे पाठकजीने, उक्त ऐनल्सकी उसी संख्यामें प्रकाशित अपने दूसरे लेख (पृ० 157 ) में दिग्नागका बतलाया है प्रत्यक्ष कल्पनापोडं नामजात्यादियोजना / अमाधारणहेतुत्वादःस्तव्यपदिश्यते / / ऐसी हालतमें यह स्पष्ट है कि प्रत्यक्षका 'कल्पनापोढ' स्वरूप एकमात्र होना माना जायगा तो दिग्नागको भी धर्मकीर्तिके बादका विद्वान कहना होगा जो पाठक महाशयको भी इष्ट नहीं हो सकता और न इतिहाससे किसी तरह सिद्ध ही किया जासकता है; क्योंकि धर्मकीतिन दिग्नागके 'प्रमाणममुश्चय' ग्रन्थपर वार्तिक लिखा है / वस्तुत: धर्मकीति दिग्नागके बाद न्यायशास्त्रमें विशेष उन्नति करनेवाला हुआ है, जिसका स्पष्टीकरगा ई-मिग नामक चीनी यात्री ( सन् 671-665 ) ने अपने यावाविवरगामें भी दिया है। उसने दिग्नागप्रतिपादित प्रत्यक्षके 'कल्पनापोन' लक्षणमें 'प्रभ्रान्त' पदकी वृद्धि कर उमका सुधार किया है / और यह 'अम्रान्त' शब्द अथवा इसी प्राशयका कोई दूमग शब्द समन्तभद्रके उक्त वाक्यमें नहीं पाया जाता, और इसलिये यह नही कहा जासकता कि ममन्तभद्रने धर्मकीतिके प्रत्यक्ष लक्षणको गामने रखकर उसपर आपत्ति की है / यह दूसरी बात है कि समन्तभदने प्रत्यक्षके जिस 'निर्विकल्पक' लक्षगापर आपति की है उसमे धर्मकीतिका लक्षण भी प्रापन्न एवं बाधित ठहरता है; क्योंकि उसने भी अपने लक्षणमें प्रत्यक्षके निर्विकल्पक स्वरूपको अपनाया है। और इमीमे टीकामें टीकाकार विमानन्द प्राचार्यने, जिन्हें गलतीसे लेख में 'पात्रके मरी' नाममे भी उल्लेखित किया गया है, "कल्प___+देखो, डा.सतीशचन्द्रकी 'हिस्टरी प्राफ़ दि मिडियावल स्कूल प्रॉफ़ इंडि. यन लॉजिक'पृ०१०५ तथा J. B. B. R. A. S.Vol.XVIII P. 229. देखो, उक्त हिस्टरी ( H. M. S. I. L.) पृ० 105 या हिस्टरी प्राफ़ इण्डियन लॉजिक प० 306 /
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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