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________________ समन्तभद्रका समय और डा० के.बी. पाठक 301 हम समन्तभद्रको ईसाकी पाठवीं शताब्दीके पूर्वार्धमें स्थापित करनेके लिये मजबूर है-हमें बलात् ऐसा निर्णय देनेके लिये बाध्य होना पड़ता है / हेतुओंकी जाँच समन्तभद्रका धर्मकीतिके बाद होना सिद्ध करनेके लिये जो पहले तीन हेतु दिये गये है उनमेंसे कोई भी समीचीन नहीं है / प्रथमहेतु रूपसे जो बात कही गई है वह युक्तधनुशासनके उस वाक्यपरसे उपलब्ध ही नहीं होती जो वहाँपर उद्धृत किया गया है क्योंकि उसमे न तो धर्मकीर्तिका नामोल्लेख है, न न्यायबिन्दुका और न धर्मकीतिका प्रत्यक्ष लक्षरण ही उद्धृत पाया जाता है, जिसका रूप है-"प्रत्यक्ष कल्पनापादमभ्रान्तम।" यदि यह कहाजाय कि उक्त वाक्यमें 'अकल्प' पदका जो प्रयोग है वह निविकल्पक' तथा 'कल्पनापोढ'का वाचक है और इसलिये धर्मकीतिके प्रत्यक्ष-लक्षगाको लक्ष्य करके ही लिखा गया है, तो इसके लिये सबसे पहले यह सिद्ध करना होगा कि प्रत्यक्षको अकल्पक अथवा कल्पनापोनु निर्दिष्ट करना एकमात्र धर्मकीनिकी ईजाद है--उममे पहले के किमी भी विद्वान्न प्रत्यक्षका ऐमा म्वरूप नहीं बनलाया है। परन्तु यह सिद्ध नहीं हैधर्मकीतिमे पहले दिग्नाग नामके एक बहुत बड़े बौद्ध तार्किक हो गये है, जिन्होंने न्यायशास्त्रपर 'प्रमाणसमुश्चय' प्रादि कितने ही ग्रन्थ लिखे है और जिनका समय ई० सन् 345 मे 415 तक बतलाया जाता है * / उन्होंने भी 'प्रत्यक्ष कल्पनापाढम' इत्यादि वाक्य / के द्वारा प्रत्यक्षका स्वरूप 'कल्पनापोढ' बतलाया है। ब्राह्मण नाकिक उद्योतकरने अपने न्यायवानिक ( 1--1--4 ) में 'प्रत्यक्ष कल्पनापोहम' इस वाक्यको उद्धत करते हुए दिग्नागके प्रत्यक्ष विषयक सिद्धान्तकी नीव पालोचना की है / और यह उद्योतकर भी धर्मकीर्तिमे पहने हुए है। क्योंकि धर्मकीतिने उनपर भापति की है, जिसका उल्लेख खुद देखो,गायकवाड़ प्रोरियण्टल सिरीज बड़ोदाम प्रकाशित 'सत्त्वसंग्रह' ग्रंथको भूमिकादिक / यह वाक्य दिग्नागके 'प्रमाणसमुख्य' में तथा 'न्यायप्रवेश में भी पाया जाता है और वाचस्पति मिश्रने न्यायवार्तिककी टीकामें इसे साफ़ तौर पर दिग्नागके नामसे उल्लेखित किया है।
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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