________________ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश वर्णात्मकाश्च ये शब्दाः नित्याः सर्वगतास्तथा / पृथक द्रव्यतया ते तु न गुणाः कस्यचिन्मताः॥ -इति भट्टाचार्याः(यवचनाच्च) ये भट्टाचार्य स्वयं कुमारिल है, जो प्राय: इस नामसे उल्लेखित पाये जाते है; जैसा कि निम्न दो प्रवतरणोंमे प्रकट है-- तदुक्तं भट्टाचार्यैर्मीमांसाश्लोकवातिके / यस्य नावयवः स्फोटो व्यज्यते वर्णबुद्धिभिः / सोपि पर्यनुयोगेन नैकेनापि विमुच्यते / / इनि / तदुक्तं भट्टाचार्यः प्रयोजनमनुद्दिश्य न मन्दोपि प्रवर्तते / जगच सृजतस्तस्य किं नाम न कृतं भवेत / / इति / -मर्वदर्शनमग्रह अत : खुद समन्तभद्रके शिष्यद्वारा कुमारिलका उल्लेख होनम समन्तभद्र कुमारिलसे अधिक पहलके विद्वान् नहीं ठहरते ...वे या तो कुमारिलके प्रायः समसामयिक हैं अथवा कुमारिलर थोड़े ही ममय पहले हुए है। (7) 'दिगम्बर जैनसाहित्यमे कुमारिलका स्थान'' नामक मरे लेखम यह सिद्ध किया जा चुका है कि समनभद्रकी प्राप्तमीमामा' और उसकी अकलंकदेवकृत 'अष्टशती' नामकी पहली टीका दोनों कुमारिलके द्वारा नीवालोचित हुई हैं-खण्डिन की गई है --ौर प्रकलंकदेवके दो अवर (Junior ) समकालीन विद्वानों विद्यानन्द-पात्रकेमरी तथा प्रभाचन्द्रके द्वारा मण्डित ( मरक्षित) की गई हैं। अकलंकदेव राष्ट्रकूट राजा साहमतुङ्ग-दन्तिदुर्गके राज्यकालमें हुए है, पौर प्रभाचन्द्र अमोघवर्ष प्रथमके गज्यतक जीवित रह है, क्योंकि उन्होंने गुणभद्रके प्रात्मानुशासनका उल्लेख किया है / अकलकदेव और उनके छिद्रान्वेपी कुमारिलके साहित्यिक व्यापारोंको ईसाकी पाठवीं शताब्दीके उत्तरार्धमें रक्खा जाना चाहिये / और चूकि समन्तभद्रने धर्मकीति तथा मर्तृहरिके मतोंका खण्डन किया है और उनके शिष्य लक्ष्मीपर कुमारिसका उल्लेख करते है, प्रतः