________________ समन्तभद्रका समय और डा० के.वी. पाठक 296 ___इस तरहपर यह स्पष्ट है कि समन्तभद्रके मतमें शब्दाद्वैतका सिद्धान्त सुनिश्चित रूपसे असत्य है / समन्तभद्रके शब्दों "न च स्यात्प्रत्ययो लोके यः श्रोत्रा न प्रतीयते" की तुलना भर्तृहरि के शब्दों "न सास्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमाहते" के साथ करनेपर मालूम होता है कि समन्तभद्रने भर्तृहरिके मतका खण्डन यथासंभव प्राय. उसीके शब्दोंको उद्धृत करके किया है, जो कि मध्यकालीन ग्रन्थकारोंकी विशेषताओंमसे एक खास विशेषता है, (लेखमें नमूने के तौर पर इस विशेषताके कुछ उदाहरण भी दिये गये है।) और इस लिये समन्तभद्र भर्तृहरिके बाद हुए हैं। (5) ममन्न भद्रके शिष्य लक्ष्मीधरने अपने 'एकान्त खण्डन' में लिखा है "नकांतलक्ष्मीविलासावासाः सिद्धसनार्याः असिद्धि प्रति (त्य)पादयन् / षडदर्शनरहस्यसंवेदनमंपादिननिम्सीमपाण्डित्यमण्डिताः पूज्यपादस्वामिनस्तु विराधंसाधयति म्म / सकलताकिंकचक्रचूडामणिमरीचिमेचकितचरणनखमयूस्खा भगवन्तः श्रीस्वामिममन्तभद्राचार्या असिद्धिविरोधावत्र वन / तदुतं / / अमिद्धं सिद्धसेनस्य विरुद्धं देवनन्दिनः / द्वयं समन्तभद्रस्य सर्वथैकान्तसाधमिति / / नित्यादोकान्तहेताबु धततिमहित: सिद्धसेनो ह्यसिद्धं / 5 ते श्रीदेवनन्दी विदितजिनमतः सन विरोधं व्यनक्ति।।" इन प्रवतरणोंमे, जो कि एकान्तम्खण्डनके प्रारम्भिक भागमे उद्धृत किये गये है, स्पष्ट है कि पूज्यपाद ममन्तभद्रम पहिले जीवित थे--अर्थात् समन्तभद्र पूज्यपादके बाद हुए हैं। और इसलिये पूज्यपादके जैनेन्द्र व्याकरणमे "चतुष्टयं समन्तभद्रस्य" यह समन्तभद्र के नामोल्लेखवाला जो सूत्र ( अ० 5 पा० 4 सू० 168) पाया जाता है, वह प्रक्षिप्त है। इसीमे जैन शाकटायनने, जिसने जैनेन्द्र व्याकरणके बहनसे सूत्रोंकी नकल की है, उसका अनुसरण भी नहीं किया है, किन्तु "वा" शब्दका प्रयोग करके ही सन्तोष धारण किया है-अपना काम निकाल लिया है। (6) उक्त एकान्तखण्डनमे लक्ष्मीधरने भट्टाचार्यका एक वाक्य निम्न प्रकारसे उदधृत किया है