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________________ 28 जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश प्रस्तावनावाक्पके साथ पाठकजीने अपने लेखमें जिन हेतुप्रोंका प्रयोग किया है, उनका सार इस प्रकार है: (1) समन्तभद्र बौद्ध ग्रन्थकार धर्मकीतिके बाद हुए हैं; क्योंकि उन्होंने 'युक्त्यनुशासन' में निम्न वाक्य-द्वारा प्रत्यक्षके उस प्रसिद्ध लक्षगपर आपत्ति की है जिसे धर्मकोतिने 'न्यायबिन्दु' में दिया है प्रत्यक्षनिर्देशवदप्यसिद्धमकल्पकं ज्ञापयितु अशक्यम् / विना च सिद्धेन च लक्षणार्थो न तावकद्वेषिणि वीर ! मत्यम् // 3 // (2) चूंकि प्राप्तमीमासाक ८०वे पद्यमें समन्तभद्रने बतलाया है कि धर्मकीति अपना विरोध खुद करता है जब कि वह कहता है कि सहोपलम्भनियमादभेदी नीलतद्धियोः (प्रमाणविनिश्चय) इमलिये भी समन्नमद्र धर्मकीनिके बाद हुए है। (3) प्राप्तमीमांसाके पद्य नं० 106 में जैनग्रन्थकार (समन्तभद्र) ने बौद्ध ग्रन्थकार (धर्मकीति) के त्रिलक्षण हेतुपर प्रापत्ति की है। इसमे भी स्पष्ट है कि समन्तभद्र धर्मकीनिके बाद के विद्वान् है / (4) शन्दावनके सिद्धान्तको भर्तृहरिने इस प्रकारमे प्रतिपादित किया है न मोम्ति प्रत्यया लांक यः शब्दानुगमाइते / अनुविद्धमिव झानं सर्व शहेन भासते / / वारूपता चेदुक्रामेदवबांधम्य शाश्वती। न प्रकाशः प्रकाशेत सा हि प्रत्यवमशिनी।। भर्तृहरिके इसी सिद्धान्तकी श्वेताम्बर ग्रन्धकार हरिभद्रमूरिन अपनी 'अनेकान्त नयपनाका' के निम्न वाक्यमें तीव्र पालोचना की है और उसमें समन्तभद्रको 'बादिमुख्य' नाम देते हुए प्रमाणरूपमे उनका वचन उद्धत किया है___ "एतेन यदुक्तमाह च शब्दार्थविन , वारूपता चेदकामेन इत्यादि कारिकाद्वयं तदपि प्रत्युक्तम् / तुल्ययोगक्षेमत्वादिति प्राह च वादिमुख्य: बोधात्मा चेच्छब्दस्य न स्यादन्यत्र तच्छरुतिः / यद्बोद्धार परित्यज्य न बोधोऽन्यत्र गच्छति / / न च स्यात्प्रत्ययो लोके यः श्रोत्रा न प्रतीयते। शब्दाभेदेन सत्येवं सर्वः स्यात्परचित्तवत् // इत्यादि /
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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