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________________ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन : 576 अङ्गरूप है / श्वेताम्बरस्वकी सिद्धि के लिये दूसरा और कोई प्रमाण उपस्थित नहीं किया गया और इससे यह भी साफ मालूम होता है कि स्वयं सन्मतिमूत्रमें ऐसी कोई बात नहीं है जिससे उसे दिगम्बरकृति न कहकर श्वेताम्बरकृति कहा जा सके, अन्यथा उसे जरूर उपस्थित किया जाता / सन्मतिमें ज्ञानदर्शनोपयोगके अभेदवाद की जो खास बात है वह दिगम्बर मान्यताके अधिक निकट है, दिगम्बरोंके युगपद्वादपरसे ही फलित होती है न कि श्वेताम्बरोंके क्रमवादपरसे, जिसके खण्डनमें युगपद्वादकी दलीलोंको सन्मतिमें अपनाया गया है / और श्रद्धात्मक दर्शन तथा सम्यग्ज्ञानके अभेदवादकी जो बात सन्मतिके द्वितीयकाण्डकी गाथा ३२-३३में कही गई है उसके बीज श्रीकुन्दकुन्दाचार्यके समयसार ग्रंथमें पाये जाते हैं। इन बीजोंकी बातको पं० सुखलालजी प्रादिने भी सन्मतिकी प्रस्तावना (पृ० 62) में स्वीकार किया है-लिखा है कि "सन्मतिना (कां० 2 गाथा 32 ) श्रद्धा-दर्शन अपने ज्ञानना ऐक्यवादनु बीज कुन्दकुन्दना समयसार गा० 1-13 मां + स्पष्ट छ।" इसके सिवाय, समयसारकी जो परमाद अप्पारणं' नामको १४वीं गाथामें शुद्ध नयका स्वरूप बतलाते हुए जब यह कहा गया है कि वह नय प्रात्माको अविशेषरूपसे देखता है तब उसमे ज्ञान-दर्शनोपयोग की भेद-कल्पना भी नही बनती और इस दृष्टिले उपयोग-द्वयकी अभेदवादताके बीज भी समयसारमें सन्निहित है ऐसा कहना चाहिये। हो, एक बात यहाँ और भी प्रकट कर देनेकी है और वह यह कि पं० सुखलाल त्रीने 'मिद्ध सेनदिवाकरना समयको प्रश्न' नामक लेखमें 8 देवनन्दी पूज्यपादको "दिगम्बरपरम्पराका पक्षपाती सुविद्वान्" बतलाते हुए सन्मतिके कता सिद्ध सेनदिवाकरको "श्वेताम्बरपरम्पराका समर्थक आचाय" लिखा 1 यहाँ जिस गाथाकी सूचना की गई है वह 'दसणणाणचरितारिण' नाम की १६वीं गाथा है / इसके अतिरिक्त 'ववहारेणुवदिस्सइ गाणिस्स चरित्त दंसरणं गाण' (7), 'सम्मइंसणणारणं एसो लहदि त्ति रणवरि ववदेस' (144), और 'गाणं सम्मादिटु दु संजमं सुत्तमंगपुन्वगयं' (404) नामकी गाथाओंमें भी प्रभेदवादके बीज संनिहित हैं / 9 भारतीयविचा, तृतीय भाग पृ० 154 / .. .. .
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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