________________ 580 जनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश है, परन्तु यह नहीं बतलाया कि वे किसरूपमें श्वेताम्बरपरम्पराके समर्षक है। दिगम्बर मोर श्वेताम्मरमें भेदकी रेखा खींचने वाली मुख्यत: तीन बातें प्रसिद्ध है-१ स्त्रीमुक्ति, 2 केवलिमुक्ति (कवलाहार) पोर 3 सबस्नमुक्ति, जिन्हें श्वेताम्बर-सम्प्रदाय मान्य करता पोर दिगम्बर-सम्प्रदाय अमान्य ठहराता है। इन तीनोंमेंसे एकका भी प्रतिगदन सिद्धसेनने अपने किसी ग्रन्थमें नहीं किया है पोर न इनके अलावा अलंकृत अथवा शृङ्गारित जिन प्रतिमामोंके पूजनादिका ही कोई विधान किया है, जिसके मण्डनारिककी भी सन्मतिके टीकाकार अभयदेवसूरिको जरूरत पड़ी है और उन्होंने मूलमें वैसा कोई खास प्रसङ्गन होते हुए भी उसे यों ही टीकामें लाकर घुसेड़ा है। ऐसी स्थितिमें सिरसेनदिवाकरको दिगम्बरपरम्परामे भिन्न एकमात्र श्वेताम्बर परम्पराका समयंक प्राचार्य कसे कहा जा सकता है ? नहीं कहा जा सकता / सिद्धसेनने तो श्वेता. म्बरपरम्पराकी किसो विशिष्ट बातका काई समधन न करके उल्टा उसके उपयोग द्वय विषयक क्रमबादकी मान्यतामा सन्मतिम जोरोंके साप सहन किया है और इसके लिये उन्हें अनेक साम्प्रदायिक कट्टरनाक विकार श्वेतामर भाचार्यों का कोपभाजन एव निरस्कारका पात्र नक बनना पड़ा है। मुनि बिनविजयजाने 'सिद्ध मेनदिवाकर और स्वामी ममन्तभद्र'नामक लेख में उनके इस विचार-भेद का उल्लेख करते हुए लिखा है:___ "सिद्ध सेनजी के इस विचारभेदके कारण उस समयके मिडार-प्रन्थ-पाटी और मागमप्रवरण प्राचार्यगण उनको 'नकम्मन्य' जमे निरस्कार पत्रक विशेषणोन अलंकृत कर उनके परिवाना मामान्य प्रनादर-मार प्रकट किया करते थे।" "इस (विशेषावश्यक) भाष्य में क्षमाश्रमण (जिनभद्र)जीने दिवाकरजीक उक्त विचारभेदका खूब ही सारन किया है और उनको 'पागम-विष्ट-मापी * देखो, सन्मति-तृतीयकापडात गाथा ६५को टीका (10 754), जिसमें "भगवत्प्रतिमाया भूषणाचारोपणं कर्मयकार' स्पादि रूपसे मणन किया / गया है। जनसाहित्यसंगोषक, भाग 1 मा 1 पृ० 10,11 /