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________________ 578 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश "नाथ त्वया देशितसत्पथस्थाः स्त्रीचेतसोऽप्याशु जयन्ति मोहम् / नैघाऽन्यथा शीघ्रगतिर्यथा गां प्राची यियासुर्विपरीतयायी // 25 // " इसके पूर्वार्धमें बतलाया है कि 'हे नाथ !-वीरमिन !-प्रापके बतलाये हुए सन्मार्गपर स्थित वे पुरुष भी शीघ्र मोहको जीत लेते है-मोहनीयकर्मके सम्बन्धका अपने प्रात्मामे पूर्णत: विच्छेद कर देते है-जो 'स्त्रीचेतसः' होते हैं-स्त्रियों-जैसा चित्त ( भाव ) रखते हैं अर्थात् भावस्त्री होते हैं / और इससे यह साफ़ ध्वनित है कि स्त्रियां मोहको पूर्णत: जीतने में समर्थ नहीं होती, तभी स्त्रीचित्तके लिये मोहको जीतनेकी बात गौरवको प्राप्त होती है। श्वेताम्बरसम्प्रदायमे जब स्त्रियाँ भी पुरुषोंकी तरह मोहपर पूर्ण विजय प्राप्त करके उसी भवसे मुक्तिको प्राप्त कर सकती है तब एक श्वेताम्बर विद्वानके इस कथनमें कोई महत्त्व मालूम नहीं होता कि 'स्त्रियों-जैसा चित्त रखनेवाले पुरुष भी शीघ्र मोहको जीत लेते हैं, वह निरर्थक जान पड़ता है / इस कथनका महत्त्व दिगम्बर विद्वानोंके मुखसे उच्चरित होने में ही है जो स्त्रीको मुक्तिकी अधिकारिणी नही मानते फिर भी स्त्रीचित्तवाले भावस्त्री पुरुषों के लिये मुक्तिका विधान करते हैं। अत: इस वाक्यके प्रणेता सिद्धमेन दिगम्बर होने चाहिये, न कि श्वेताम्बर, और यह समझना चाहिये कि उन्होंने इसी द्वात्रिंशिकाके छठे पद्यमें 'यशोदाप्रिय' पदके साथ जिस घटनाका उल्लेख किया है वह अलारकी प्रधानताको लिये हुए परवक्तव्यके रूपमें उसी प्रकारका कथन है जिस प्रकार कि ईश्वरको कर्ताहर्ता न माननेवाला एक जैनकवि ईश्वरको उलहना अथवा उसकी रचनामें दोष देता हग्रा लिखता है "हे विधि ! भूल भई तुमतें, समुझे न कहाँ कस्तूरि बनाई ! दीन कुरङ्गनके तनमें, तृन दन्त धरै करुना नहि आई / / क्यों न रची तिन जीभनि जे रस-काव्य करै परको दुखदाई। साधु-अनुग्रह दुर्जन-दण्ड, दुहूँ सधते बिसरी चतुराई / / " इस तरह सन्मतिके कर्ता सिद्धसेनको श्वेताम्बर सिद्ध करनेके लिये जो द्वात्रिशिकापोंके उक्त .दो पद्य उपस्थित किये गए है उनसे सन्मतिकार सिद्ध सेनका श्वेताम्बर सिद्ध होना तो दूर रहा, उन द्वात्रिशिकामोंके कर्ता सिद्धसेनका भी श्वाम्बर होना प्रमाणित नहीं होता जिनके उक्त दोनों पर
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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